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रंगभूमि


गरमी के मारे सारी देह पसीने से तर थी, हाथ इस तरह काँप रहे थे, मानों लकवा गिर गया हो। वह चिट्ठियों को निकाल-निकालकर देखने लगी। और, पत्रों को केवल देखना ही न था, उन्हें अपनी जगह सावधानी से रखना भी था। पत्रों का एक दफ्तर सामने था, बरसों की चिट्ठियाँ वहाँ निर्वाण-सुख भोग रही थीं। सोफिया को उनकी तलाशी लेते घंटों गुजर गये, दफ्तर समाप्त होने को आ गया, पर वह चीज न मिली। उसे अब कुछ-कुछ निराशा होने लगी; यहाँ तक कि अंतिम पत्र भी उलट-पलटकर रख दिया गया। तब सोफिया ने एक लंबी साँस ली। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो किसी मेले में अपने खोये हुए बंधु को ढूँढ़ता हो; वह चारों ओर आँखें फाड़-फाड़कर देखता है, उसका नाम लेकर जोर जोर से पुकारता है, उसे भ्रम होता है; वह खड़ा है, लपककर उसके पास जाता है, और लजित होकर लौट आता है। अंत में वह निराश होकर जमीन पर बैठ जाता और रोने लगता है।

सोफिया भी रोने लगी। वह पत्र कहाँ गया? रानी ने तो उसे मेरे सामने ही इसी बैग में रख दिया था? उनके और सभी पत्र यहाँ मौजूद हैं। क्या उसे कहीं और रख दिया? मगर आशा उस घास की भाँति है, जो ग्रीष्म के ताप से जल जाती है, भूमि पर उसका निशान तक नहीं रहता, धरती ऐसी उज्ज्वल हो जाती है, जैसे टकसाल का नया रुपया; लेकिन पावस की बूंद पड़ते ही फिर जली हुई जड़ें पनपने लगती हैं और उसी शुष्क स्थल पर हरियाली लहराने लगती है।

सोफिया की आशा फिर हरी हुई। कहीं मैं कोई पत्र छोड़ तो नहीं गई? उसने दुबारा पत्रों को पढ़ना शुरू किया, और ज्यादा ध्यान देकर। एक-एक लिफाफे को खोलकर देखने लगी कि कहों रानी ने उसे किसी दूसरे लिफाफे में रख दिया हो। जब देखा कि इस तरह तो सारी रात गुजर जायगो, तो उन्हीं लिफाफों को खोलने लगी, जो भारी मालूम होते थे। अंत को यह शंका भी मिट गई। उस लिफाफे का कहीं पता न था। अब आशा की जड़ें भी सूख गई, पावस की बूंद न मिली।

सोफिया चारपाई पर लेट गई, मानों थक गई हो। सफलता में अनंत सजीवता होती है, विफलता में असह्य अशक्ति। आशा मद है, निराशा मद का उतार। नशे में हम मैदान की तरफ दौड़ते हैं, सचेत होकर हम घर में विश्राम करते हैं। आशा जड़ की ओर ले जाती है, निराशा चैतन्य की ओर। आशा आँखें बंद कर देती है, निराशा आँखें खोल देती है। आशा सुलानेवाली थपकी है, निराशा जगानेवाला चाबुक।

सोफिया को इस वक्त अपनी नैतिक दुर्बलता पर क्रोध आ रहा था—"मैंने व्यर्थ ही अपनी आत्मा के सिर पर यह अपराध मढ़ा। क्या मैं रानी से अपना पत्र न माँग सकती थी? उन्हें उसके देने में जरा भी बिलंब न होता। फिर मैंने वह पत्र उन्हें दिया ही क्यों? रानीजी को कहीं मेरा यह कपट-व्यवहार मालूम हो गया, और अवश्य ही मालूम हो जायगा, तो वह मुझे अपने मन में क्या समझेंगी! कदाचित् मुझसे नीच और निकृष्ट कोई प्रापी न होगा।"