घबरा रहा था कि अकेले कैसे जाऊँगा। अब एक से दो हो गये, कोई चिंता नहीं है। मेरा भी कोई पत्र है?"
डाकिये ने विनयसिंह के हाथ में एक पत्र रख दिया। रानीजी का पत्र था। यद्यपि अँधेरा हो रहा था, पर विनय इतने उत्सुक हुए कि तुरंत लिफाफा खोलकर पत्र पढ़ने लगे। एक क्षण में उन्होंने पत्र समाप्त कर दिया और तब एक ठंडी साँस भरकर लिफाफे में रख दिया। उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि गिरने का भय हुआ। जमीन पर बैठ गये। डाकिये ने घबराकर पूछा-"क्या कोई बुरा समाचार है? आपका चेहरा पीला पड़ गया है।"
विनय-"नहीं, कोई ऐसी खबर नहीं। पैरों में दर्द हो रहा है, शायद मैं आगे न जा सकूँगा!"
डाकिया-"यहाँ इस बीहड़ में अकेले कैसे पड़े रहिएगा?"
विनय-"डर क्या है!"
डाकिया- "इधर जानवर बहुत हैं, अभी कल एक गाय उठा ले गये।"
विनय-"मुझे जानवर भी न पूछेगे, तुम जाओ, मुझे यहीं छोड़ दो।”
डाकिया-"यह नहीं हो सकता, मैं भी यहीं पड़ रहूँगा।"
विनय-"तुम मेरे लिए क्यों अपनी जान संकट में डालते हो? चले जाओ, घड़ी रात गये तक पहुँच जाओगे।"
डाकिया-'मैं तो तभी जाऊँगा, जब आप भी चलेंगे। मेरी जान की कौन हस्ती है। अपना पेट पालने के सिवा ओर क्या करता हूँ। आपके दम से हजारों का भला होता है। जब आपको अपनी चिंता नहीं है, तो मुझे अपनी क्या चिंता है।"
विनय—"भाई, मैं तो मजबूर हूँ। चला ही नहीं जाता।"
डाकिया--"मैं आपको कंधे पर बैठाकर ले चलूँगा; पर यहाँ न छोडूँगा।"
विनय—"भाई, तुम बहुत दिक कर रहे हो। चलो, लेकिन मैं धीरे-धीरे चलूँगा। तुम न होते, तो आज मैं यहीं पड़ रहता।”
डाकिया—“आप न होते, तो मेरी जान की कुशल न थी। यह न समझिए कि मैं केवल आपकी खातिर इतनी जिद कर रहा हूँ, मैं इतना पुण्यात्मा नहीं हूँ। अपनो रक्षा के लिए आपको साथ लिये चलता हूँ। (धीरे से) मेरे पास इस वक्त ढाइ सो रुपये हैं। दोपहर को एक जगह सो गया, बस देर हो गई। आप मेरे भाग्य से मिल गये, नहीं तो डाकुओं से जान न बचती।"
विनय—"यह तो बड़े जोखिम की बात है। तुम्हारे पास कोई हथियार है?"
डाकिया--"मेरे हथियार आप हैं। आपके साथ मुझे कोई खटका नहीं है। आपको देखकर किसी डाकू की मजाल नहीं कि मुझ पर हाथ उठा सके। आपने डकैतों को भी वश में कर लिया है।" सहसा धोड़ों की टाप की आवाज कान में आई। डाकिये ने घबराकर पीछे देखा।
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