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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२०७

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रंगभूमि


मुँह से ऐसी बात निकली ही क्यों, और किसी भाँति कमान से निकले हुए तीर को फेर लाने का उपाय सोच रहे थे कि इतने में दीवान साहब का भवन आ गया। विशाल फाटक पर दो सशस्त्र सिपाही खड़े थे और फाटक से थोड़ी दूर पर पीतल की दो तोपें रखी हुई थीं। फाटक पर मोटर रुक गई और दोनों सिपाही विनयसिंह को अंदर ले चले। दीवान साहब दीवानखास में विराजमान थे। खबर पाते ही विनय को बुला लिया।

दीवान साहब का डील ऊँचा, शरीर सुगठित और वर्ण गौर था। अधेड़ हो जाने पर भी उनकी मुख-श्री किसी खिले हुए फूल के समान थी। तनी हुई मुँछे थीं, सिर पर रंग-बिरंगी उदयपुरी पगिया, देह पर एक चुस्त शिकारी कोट, नीचे उदयपुरी पाजामा, ऊपर एक भारी ओवरकोट। छाती पर कई तमगे और सम्मान-सूचक चिह्न शोभा दे रहे थे। उदयपुरी रिसाले के साथ योरपीय महासमर में सम्मिलित हुए थे और वहाँ कई कठिन अवसरों पर अपने असाधारण पुरुषार्थ से सेना-नायकों को चकित कर दिया। यह उसी सुकीर्ति का फल था कि वह इस पद पर नियुक्त हुए थे। सरदार नीलकंठसिंह नाम था। ऐसा तेजस्वी पुरुष विनय की निगाहों से कभी न गुजरा था।

दीवान साहब ने विनय को देखते ही मुस्किराकर उन्हें एक कुर्सी पर बैठने को संकेत किया और बोले—“ये आभूषण तो आपकी देह पर बहुत शोभा नहीं देते; किंतु जनता की दृष्टि में इनका जितना आदर है, उतना मेरे इन तमगों और पट्टियों का कदापि नहीं है। यह देखकर मुझे आप से डाह हो, तो कुछ अनुचित है?"

विनय ने समझा था, दीवान साहब जाते-ही-जाते गरज पड़ेंगे, लाल-पीली आँखें दिखायेंगे। वह उस बर्ताव के लिए तैयार थे। अब जो दीवान साहब की सहृदयता-पूर्ण बातें सुनीं, तो संकोच में पड़ गये। उस कठोर उत्तर के लिए यहाँ कोई स्थान न था, जिसे उन्होंने मन में सोच रखा था। बोले-“यह तो कोई ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं है, जिसके लिए आप को डाह करना पड़े।"

दीवान साहब—(हँसकर) "आपके लिए दुर्लभ नहीं है; पर मेरे लिए तो दुर्लभ है। मुझमें वह सत्साहस, सदुत्साह नहीं है, जिसके उपहार-स्वरूप ये सब चीजें मिलती हैं। मुझे आज मालूम हुआ कि आप कुँवर भरतसिंह के सुपुत्र हैं। उनसे मेरा पुराना परिचय है। अब वह शायद मुझे भूल गये हों। कुछ तो इस नाते से कि आप मेरे एक पुराने मित्र के बेटे हैं और कुछ इस नाते से कि आपने इस युवावस्था में विषय-वासनाओं को त्यागकर लोक-सेवा का व्रत धारण किया है, मेरे दिल में आपके प्रति विशेष प्रेम और सम्मान है। व्यक्तिगत रूप से मैं आपकी सेवाओं को स्वीकार करता हूँ और इस थोड़े-से समय में आपने रियासत का जो कल्याण किया है, उसके लिए आपका कृतज्ञ हूँ। मुझे खूब मालूम है कि आप निरपराध हैं और डाकुओं से आपका कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसका मुझे गुमान तक नहीं है। महाराजा साहब से भी आपके सम्बन्ध में घंटे-भर बातें हुई। वह भी मुक्त कंठ से आपकी प्रशंसा करते हैं। लेकिन परिस्थितियाँ हमें आपसे यह याचना करने के लिए मजबूर कर रही हैं कि