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रंगभूमि


के रोजगारी, क्या हिंदुस्तानी और क्या अँगरेज, मेरे सहायक होंगे; और गवर्नमेंट कोई इतनी निर्बुद्धि नहीं है कि वह व्यवसायियों की सम्मिलित ध्वनि पर कान बंद कर ले। यह व्यापार-राज्य का युग है। योरप में बड़े-बड़े शक्तिशाली साम्राज्य पूँजीपतियों के इशारों पर बनते-बिगड़ते हैं, किसी गवर्नमेंट का साहस नहीं कि उनकी इच्छा का विरोध करे। तुमने मुझे समझा क्या है, मैं वह नरम चारा नहीं हूँ, जिसे क्लार्क और महेंद्र खा जायँगे!”

प्रभु सेवक तो ऐसे सिटपिटाये कि फिर जबान न खुली। धीरे से उठ कर चले गये। सोफिया भी एक क्षण के लिए सन्नाटे में आ गई। फिर सोचने लगी-अगर पापा ने आन्दोलन किया भी, तो उसका नतीजा कहीं बरसों में निकलेगा, और यही कौन कह सकता है कि क्या नतीजा होगा; अभी से उसकी क्या चिंता? उसके गुलाबी ओठों पर विजय-गर्व की मुस्किराहट दिखाई दी। इस समय वह इंदु के चेहरे का उड़ता हुआ रंग देखने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकती थी-काश मैं वहाँ मौजूद होती! देखती तो कि इंदु के चेहरे पर कैसी झेप है। चाहे सदैव के लिए नाता टूट जाता; पर इतना जरूर कहती-देखा अपने राजा साहब का अधिकार और बल? इसी पर इतना इतराती थीं? किंतु क्या मालूम था कि क्लार्क इतनी जल्दी करेंगे।

भोजन करके वह अपने कमरे में गई और रानी इन्दु के मानसिक संताप का कल्प-नातीत आनंद उठाने लगी-राजा साहब बदहवास, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, आकर इंदु के पास बैठ जायेंगे। इंदुदेवी लिफाफा देखेंगी, आँखों पर विश्वास न आयेगा; फिर रोशनी तेज करके देखेंगी, तब राजा के आँसू पोंछेगी-"आप व्यर्थं इतने खिन्न होते हैं, आप अपने ओर से शहर में डुग्गी पिटवा दीजिए कि हमने सूरदास की जमीन सरकार से लड़कर वापस दिला दी। सारे नगर में आपके न्याय की धूम मच जायेगी। लोग समझेंगे, आपने लोकमत का सम्मान किया है। खुशामदी टट्ट कहीं का! चाल से विलियम को उल्लू बनाना चाहता था। ऐसी मुँह की खाई है कि याद ही करेगा। खैर, आज न सही, कल, परसों, नरसों, कभी तो इंदुदेवी से मुलाकात होगी ही। कहाँ तक मुँह छिपायेंगी!"

यह सोचते-सोचते सोफिया मेज पर बैठ गई और इस वृत्तांत पर एक प्रहसन लिखने लगी। ईर्ष्या से कल्पना-शक्ति उर्वर हो जाती है। सोफिया ने आज तक कभी प्रहसनं न लिखा था। किंतु इस समय ईर्ष्या के उद्गार में उसने एक घंटे के अंदर चार दृश्यों का एक विनोद-पूर्ण ड्रामा लिख डाला। ऐसी-ऐसी चोट करनेवाली अन्योक्तियाँ और हृदय में चुटकियाँ लेनेवाली फबतियाँ लेखनी से निकलीं कि उसे अपनी प्रतिभा पर स्वयं आश्चर्य होता था। उसे एक बार यह विचार हुआ कि मैं यह क्या बेवकूफी कर रही हूँ। विजय पाकर परास्त शत्रु को मुँह चिढ़ाना परले सिरे की नीचता है, पर ईर्ष्या में उसके समाधान के लिए एक युक्ति ढूँढ़ निकाली-“ऐसे कपटी, सम्मान-लोलुप, विश्वास-घातक, प्रजा के मित्र बनकर उसकी गरदन पर तलवार चलानेवाले, चापलूस रईसों को यही सजा