और वह अभी तक उसका उपासक है। खुदा से दुआ करो कि उसके हृदय का अंध-कार ज्ञान की दिव्य ज्योति से दूर कर दे। जिन लोगों ने हमारे प्रभु मसीह को नाना प्रकार के कष्ट दिये थे, उनके विषय में प्रभु ने कहा था—"खुदा, उन्हें मुआफ कर। वे नहीं जानते कि हम क्या करते हैं।"
सोफी-"मैं आपसे सच कहती हूँ, मुझे पापा की बातों का जरा भी मलाल नहीं है; लेकिन वह मुझ पर मिथ्या दोष लगाते हैं। इंदु की बातों के सामने मेरी बातों को कुछ समझते ही नहीं।"
ईश्वर सेवक—"बेटी, यह उनकी भूल है। मगर तुम अपने दिल से उन्हें क्षमा कर दो। सांसारिक प्राणियों की इतनी निंदा की गई है; पर न्याय से देखो, तो वे कितनी दया के पात्र हैं। आखिर आदमी जो कुछ करता है, अपने बाल-बच्चों के लिए तो करता हैं—उन्हीं के सुख और शांति के लिए, उन्हीं को संसार की वक्र दृष्टि से बचाने के लिए वह निंदा, अपमान, सब कुछ सहर्ष सह लेता है, यहाँ तक कि अपनी आस्मा और धर्म को भी उन पर अर्पित कर देता है। ऐसी दशा में जब वह देखता है कि जिन लोगों के हित के लिए मैं अपना रक्त और पसीना एक कर रहा हूँ, वे ही मुझसे विरोध कर रहे हैं, तो वह झुंझला जाता है। तब उसे सत्यासत्य का विवेक नहीं रहता। देखो, क्लार्क से भूलकर भी इन बातों का जिक्र न करना, नहीं तो आपस में मनोमालिन्य बढ़ेगा। वचन देती हो?"
ईश्वर सेवक जब उठकर चले गये, तो प्रभु सेवक ने आकर पूछा- "वह प्रहमन कहाँ भेजा?"
सोफिया—"अमी तो कहीं नहीं भेजा, क्या भेज ही दूँ?"
प्रभु सेवक—"जरूर-जरूर, मजा आ जायगा, सारे शहर में धूम मच जायगी।"
सोफिया—"जरा दो-एक दिन देख लूँ।"
प्रभु सेवक—"शुभ कार्य में विलंब न होना चाहिए, आज ही भेजो। मैंने भी आज अपनी कथा समाप्त कर दी। सुनाऊँ?"
सोफिया—"हाँ-हाँ, पढ़ो।"
प्रभु सेवक ने अपनी कविता सुनानी शुरू की। एक-एक शब्द करुण रस में सराबोर था। कथा इतनी दर्दनाक थी कि सोफी की आँखों से आँसू की झड़ी लग गई। प्रभु सेवक भी रो रहे थे। क्षमा और प्रेम के भाव एक-एक शब्द से उसी भाँति टपक रहे थे, जैसे आँखों से आँसू की बूंदें। कविता समाप्त हो गई, तो सोफ़ी ने कहा-"मैंने कभी अनुमान भी न किया था कि तुम इस रस का आस्वादन इतनी कुशलता से करा सकते हो! जी चाहता है, तुम्हारी कलम चूम लूँ। उफ्! कितनी अलौकिक क्षमा है! बुरा न मानना, तुम्हारी रचना तुमसे कहीं ऊँची है। ऐसे पवित्र, कोमल और ओजस्वी भाव तुम्हारी कलम से कैसे निकल आते हैं?"