पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२५१

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जब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार को दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले-वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावतः करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास की विजय होते ही यह सहानुभूति स्पर्धा के रूप में प्रकट हुई। यह शंका पैदा हुई कि सूरदास मन में हम लोगों को तुच्छ समझ रहा होगा। कहता होगा, जब मैंने राजा महेन्द्रकुमारसिंह-जैसों को नीचा दिखा दिया, उनका गर्व चूर-चूर कर दिया, तो ये लोग किस खेत की मूली हैं। सारा मुहल्ला उससे मन-ही-मन खार खाने लगा। केवल एक ठाकुरदीन था, जो अब भी उसके पास आया-जाया करता था। उसे अब यकीन हो गया था कि-"सूरदास को अवश्य किसी देवता का इष्ट है, उसने जरूर कोई मंत्र सिद्ध किया है, नहीं तो उसकी इतनी कहाँ मजाल कि ऐसे-ऐसे प्रतापी आदमियों का सिर झुका देता। लोग कहते हैं, जंत्र-मंत्र सब ढकोसला है। यह कौतुक देखकर भी उनकी आँखें नहीं खुलतीं।"

सूरदास के स्वभाव में भी अब कुछ परिवर्तन हुआ। धैर्यशील वह पहले ही से था; पर न्याय और धर्म के पक्ष में कभी-कभी उसे क्रोध आ जाता था। अब उसमें अग्नि का लेशांश भी न रहा; धूर था, जिस पर सभी कूड़े फेकते हैं। मुहल्लेवाले राह चलते उसे छेड़ते, आवाजें कसते, ताने मारते; पर वह किसी को जवाब न देता, सिर झुकाये भीख माँगने जाता और चुपके से अपनी झोपड़ी में आकर पड़ रहता। हाँ, मिठुआ के मिजाज न मिलते थे, किसी से सीधे मुंह बात न करता। कहता, यह कोई न समझे कि अंधा भीख माँगता है, अंधा बड़े-बड़ों की पीठ में धूल लगा देता है। बरबस लोगों को छेड़ता, भले आदमियों से बतबढ़ाव कर बैठता। अपने हमजोलियों से कहता, चाहूँ तो सारे मुहल्ले को बँधवा दूँ। किसानों के खेतों से बेधड़क चने, मटर, मूली, गाजर उखाड़ लाता; अगर कोई टोकता, तो उससे लड़ने को तैयार हो जाता था। सूरदास को नित्य उलहने मिलने लगे। वह अकेले में मिठुआ को समझाता; पर उस पर कुछ असर न होता था। अनर्थ यह था कि सूरदास की नम्रता और सहिष्णुता पर तो किसी की निगाह न जाती थी, मिठुआ की लनतरानियों और दुष्टताओं पर सभी को निगाह पड़ती थी। लोग यहाँ तक कह जाते थे कि सूरदास ने ही उसे सिर चढ़ा लिया है, बछवा खूटे ही के बल कूदता है। ईर्ष्या बाल-क्रीड़ाओं को भी कपट-नीति समझती है।

आजकल सोफिया मि. क्लार्क के साथ सूरदास से अक्सर मिला करती थी। वह नित्य उसे कुछ-न-कुछ देती और उसकी दिलजोई करती। पूछती रहती, मुहल्लेवाले या राजा साहब के आदमी तुम्हें दिक तो नहीं कर रहे हैं? सूरदास जवाब देता, मुझ पर सब लोग दया करते हैं, मुझे किसी से शिकायत नहीं हैं। मुहल्लेवाले समझते थे, यह बड़े साहब से हम लोगों की शिकायत करता है। अन्योक्तियों द्वारा यह भाव प्रकट भो