पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२६

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मि० जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि० ईश्वर सेवक ने सेना-विभाग से पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया था, ओर अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलता, और न हमें उसकी खोज करने की विशेष जरूरत है। हाँ, इतनी बात अवश्य निश्चित है कि प्रभु ईसा की शरण जाने का गौरव ईश्वर सेवक को नहीं, उनके पिता को था। ईश्वर सेवक को अब भी अपना बाल्य जीवन कुछ-कुछ याद आता था, जब वह अपनी माता के साथ गंगास्नान को जाया करते थे। माता की दाह-क्रिया की स्मृति भी अभी न भूली थी। माता के देहान्त के बाद उन्हें याद आता था कि मेरे घर में कई सैनिक घुस आये थे, और मेरे पिता को पकड़कर ले गये थे। इसके बाद स्मृति विशृखल हो जाती थी। हाँ, उनके गोरे रंग और आकृति से यह सहज ही अनुमान किया जा सकता था कि वह उच्चवंशीय थे, और कदाचित् इसी सूबे में उनका पूर्व-निवास भी था।

यह बँगला जिस जमाने में बना था, सिगरा में भूमि का इतना आदर न था। अहाते में फूल-पत्तियों की जगह शाक-भाजी और फलों के वृक्ष थे। यहाँ तक कि गमलों- में भी सुरुचि की अपेक्षा उपयोगिता पर अधिक ध्यान दिया गया था। बेलें परवल, कद्द , कुंदरू, सेम आदि की थीं, जिनसे बँगले की शोभा भी होती थी, और फल भी मिलता था। एक किनारे खपरैल वा बरामदा था, जिसमें गाय-भैंसें पली हुई थीं। दूसरी ओर अस्तबल था। मोटर का शौक न बाप को था, न बेटे को। फिटन रखने में किफायत भी थी और आराम भी। ईश्वर सेवक को तो मोटरों से चिढ़ थी। उनके शोर से उनकी शांति में विघ्न पड़ता था। फिटन का घोड़ा अहाते में एक लंबी रस्सी से बाँधकर छोड़ दिया जाता था। अस्तबल से बाग के लिए खाद निकल आती थी, और केवल एक साईस से काम चल जाता। ईश्वर सेवक गृह-प्रबंध में निपुण थे; और गृहकार्यों में उनका उत्साह लेश-मात्र भी कम न हुआ था। उनकी आराम-कुरसी बँगले के सायबान में पड़ी रहती थी। उस पर वह सुबह से शाम तक बैठे जॉन सेवक की फिजूल-खर्ची और घर की बरबादी का रोना रोया करते थे। वह अब भी नियमित रूप से पुत्र को घंटे-दो घंटे उपदेश दिया करते थे, और शायद इसी 'उपदेश का फल था कि जान सेवक का धन और मान दिनों-दिन बढ़ता जाता था। 'किफायत' उनके जीवन का मूलतत्त्व था, और इसका उल्लंघन उन्हें असह्य था। वह अपने घर में धन का अपव्यय नहीं देख सकते थे, चाहे वह किसी मेहमान ही का धन क्यों न हो। धर्मानुरागी इतने थे कि बिला नागा दोनों वक्त गिरजाघर जाते। उनकी अपनी अलग सवारी थी। एक आदमी इस तामजान को खींचकर गिरजाघर के द्वार तक पहुँचा आया करता था। वहाँ पहुँचकर ईश्वर सेवक उसे तुरंत घर लौटा देते थे।