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रंगभूमि


सोफ़िया को इन दिनों बनाव-सिंगार का बड़ा व्यसन हो गया था। अब तक उसने माँग-चोटी या वस्त्राभूषण की कभी चिंता न की थी। भोग-विलास से दूर रहना चाहती थी। धर्म-ग्रंथों की यही शिक्षा थी, शरीर नश्वर है, संसार असार है, जीवन मृग-तृष्णा है, इसके लिए बनाव-सँवार की जरूरत नहीं। वास्तविक शृंगार कुछ और ही है, उसी पर निगाह रखनी चाहिए। लेकिन अब वह जीवन को इतना तुच्छ न समझती थी। उसका रूप कभी इतने निखार पर न था। उसकी छवि-लालसा कभी इतनी सजग न थी।

संध्या हो चुकी थी। सूर्य की शीतल किरणें, किसी देवता के आशीर्वाद की भांति, तरु-पुंजों के हृदय को विहसित कर रही थीं। सोफिया एक कुंज में खड़ी आप-ही-आप मुस्किरा रही थी कि मिस्टर क्लार्क की मोटर आ पहुँची। वह सोफिया को बाग में देखकर सीधे उसके पास आये और एक कृपा-लोलुन दृष्टि से देखकर उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया। सोफिया ने मुँह फेर लिया, मानों उनके बढ़े हुए हाथ को देखा ही नहीं।

सहसा एक क्षण बाद उसने हास्य-भाव से पूछा-"आज कितने अपराधियों को दंड दिया?"

मिस्टर क्लार्क झेप गये। सकुचाते हुए बोले-"प्रिये, यह तो रोज की बातें हैं, इनकी क्या चर्चा करूँ।"

सोफ़ी—"तुम यह कैसे निश्चय करते हो कि अमुक अपराधी वास्तव में अपराधी है? इसका तुम्हारे पास कोई यंत्र है?"

क्लार्क—"गवाह तो रहते हैं।"

सोफ़ी—'गवाह हमेशा सच्चे होते हैं?"

क्लार्क—"कदापि नहीं। गवाह अक्सर झूठे और सिखाये हुए होते हैं।"

सोफ़ी—“और उन्हीं गवाहों के बयान पर फैसला करते हो!"

क्लार्क—"इसके सिवा और उपाय ही क्या है!"

सोफो—“तुम्हारी असमर्थता दूसरे की जान क्यों ले? इसीलिए कि तुम्हारे वास्ते मोटरकार, बँगला, खानसामे, भाँति-भाँति की शराबें और विनोद के अनेक साधन जुटाये जायँ?"

क्लार्क ने हतबुद्धि की भाँति कहा-"तो क्या नौकरी से इस्तीफा दे दूँ?"

सोफिया—"जब तुम जानते हो कि वर्तमान शासन-प्रणाली में इतनी त्रुटियाँ हैं, तो तुम उसका एक अंग बनकर निरपराधियों का खून क्यों करते हो?"

क्लार्क—"प्रिये, मैंने इस विषय पर कभी विचार नहीं किया।"

सोफिया—"और बिना विचार किये ही नित्य न्याय को हत्या किया करते हो! कितने निर्दयी हो!"

क्लार्क—"हम तो केवल एक कल के पुजें हैं, हमें ऐसे विचारों से क्या प्रयोजन?"

सोफ़ी—"क्या तुम्हें इसका विश्वास है कि तुमने कोई अपराध नहीं किया?"

क्लार्क—"यह दावा कोई मनुष्य नहीं कर सकता।"