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नायकराम मुहल्लेवालों से विदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रद्धा हो गई। किसी को तंबाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुफाफिर को देखते, जगह नहीं मिल रही है, इधर-उधर भटक रहा है, जिस कमरे में जाता है, धक्के खाता है, उसे बुलाकर अपनी बगल में बैठा लेते। फिर जरा देर में उससे सवालों का ताँता बाँध देते-“कहाँ मकान है? कहाँ जाते हो? कितने लड़के हैं? क्या कारोबार होता है?" इन प्रश्नों का अन्त इस अनुरोध पर होता कि "मेरा नाम नायकराम पंडा है; जब कभी कासी आओ, मेरा नाम पूछ लो, बच्चा-बच्चा जानता है, दो दिन, चार दिन, महीने, दो महीने, जब तक इच्छा हो, आराम से कासीबास करो; घर-द्वार, नौकर-चाकर सब हाजिर हैं, घर का-सा आराम पाओगे; वहाँ से चलते समय जो चाहो, दे दो, न हो, न दो, घर आकर भेज दो, इसकी कोई चिन्ता नहीं; यह कभी मत सोचो, अभी रुपये नहीं हैं, फिर चलेंगे, सुभ काज के लिए महूरत नहीं देखा जाता, रेल का किराया लेकर चल खड़े हो, कासी में तो मैं हूँ ही, किसी बात की तकलीफ न होगी, काम पड़ जाय, तो जान लड़ा दें, तीरथ-यात्रा के लिए टालमटोल मत करो, कोई नहीं जानता, कब बड़ी जात्रा करनी पड़ जाय, संसार के झगड़े तो सदा लगे ही रहेंगे।"
दिल्ली पहुंचे, तो कई नये मुसाफिर गाड़ी में आये। आर्य-समाज के किसी उत्सव में जा रहे थे। नायकराम ने उनसे भी वही जिरह शुरू की। यहाँ तक कि एक महाशय फँसनेवाले नहीं हैं। यहाँ गंगाजी के कायल नहीं, और न काशी ही को स्वर्गपुरी समझते है।
नायकराम जरा भी हताश नहीं हुए, मुस्किराकर बोले-"बाबूजी, आप आरिया होकर ऐसा कहते हैं! आरिया लोगों ही ने तो हिंदू-धरम की लाज रखी, नहीं तो अब तक सारा देस मुसलमान-किरसतान हो गया होता। हिंदू-धरम के उद्धारक होकर आप कासी को भला कैसे न मानेंगे! उसी नगरी में राजा हरिसचंद की परीच्छा हुई थी, वहीं बुद्ध भगवान ने अपना धरम-चक्र चलाया था, वहीं संकर भगवान ने मंडल मिसिर से सास्त्रार्थ किया था, वहाँ जैनी आते हैं, बौध आते हैं, वैस्नव आते हैं, वह हिंदुओं की नगरी नहीं है, सारे संसार की नगरी वही है। दूर-दूर के लोग भी जब तक कासीजी के दरसन न कर लें, उनकी जात्रा सुफल नहीं होती। गंगाजी मुकुत देती हैं, पाप काटती हैं, यह सब तो गँवारों को बहलाने की बातें हैं। उनसे कहो कि चलकर उस पवित्र नगरी को देख आओ, जहाँ कदम-कदम पर आरिया-जाति के निसान मिलते हैं, जिसका नाम लेते ही सैकड़ों महात्माओं, रिसियों-मुनियों की याद आ जाती है, तो उनकी समझ
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