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रंगभूमि


उसे ध्यान आया—"क्यों न फिर बेहोशी का बहाना करके गिर पड़े। यहाँ सब लोग घबरा जायँगे, और जरूर सोफी को मेरी खबर मिल जायगी। अगर उसकी मोटर तैयार होगी, तो भी एक बार मुझे देखने आ जायगी। पर यहाँ तो स्वाँग भरना भी नहीं आता। अपने ऊपर खुद ही हँसी आ जायगी। कहीं हँसी रुक न सकी, तो भद्द हो जायगी। लोग समझ जायँगे, बना हुआ है। काश इतना मूसलाधार पानी बरस जाता कि वह घर से बाहर निकल ही न सकती। पर कदाचित् इंद्र को भी मुझसे वैर है, आकाश पर बादल का कहीं नाम नहीं, मानों किसी हत्यारे का दया-हीन हृदय हो क्लार्क ही को कुछ हो जाता, तो आज उसका जाना रुक जाता।"

जब अँधेरा हो गया, तो उसे सोफी पर क्रोध आने लगा—"जब आज ही यहाँ से जाना था, तो उसने मुझसे कल आने का वादा ही क्यों किया, मुझसे जान-बूझकर झूठ क्यों बोली? क्या अब कभी मुलाकात हो न होगी; तब पूछूँगा। उसे खुद समझ जाना चाहिए था कि यह इस वक्त अस्थिर-चित्त हो रहा है। उससे मेरे चित्त की दशा छिपी नहीं है। वह उस अंतद्वंद्व को जानती है, जो मेरे हृदय में इतना भीषण रूप धारण किये हुए है। एक ओर प्रेम और श्रद्धा है, तो दूसरी ओर अपनी प्रतिज्ञा, माता की अप्रसन्नता का भय और लोक-निंदा को लजा। इतने विरुद्ध भावों के समागम से यदि कोई अनर्गल बातें करने लगे, तो इसमें आश्चर्य हो क्या। उसे इस दशा में मुझसे खिन्न न होना चाहिए था, अपनी प्रेममय सहानुभूति से मेरी हृदयाग्नि को शांत करना चाहिए था। अगर उसकी यही इच्छा है कि मैं इसी दशा में घुल-घुलकर मर जाऊँ, तो यही सही। यह हृदय-दाह जीवन के साथ ही शांत होगा। आह! ये दो दिन कितने आनंद के दिन थे! रात हो रही है, फिर उसी अँधेरी, दुगंधमय कोठरी में बंद कर दिया जाऊँगा, कौन पूछेगा कि मरते हो या जीते। इस अंधकार में दीपक की ज्योति दिखाई भी दी, तो जब तक वहाँ पहुँचूँ, नजरों से ओझल हो गई।"

इतने में दारोगाजी फिर आये। पर अब की वह अकेले न थे, उनके साथ एक पण्डितजी भी थे। विनयसिंह को खयाल आया कि मैंने इन पण्डितजी को कहीं देखा है; पर याद न आता था, कहाँ देखा है। दारोगाजी देर तक खड़े पण्डिजी से बातें करते रहे। विनयसिंह से कोई न बोला। विनय ने समझा, मुझ धोखा हुआ, कोई ओर आदमी होगा। रात को सब कैदी खा-पीकर लेटे। चारों ओर के द्वार बंद कर दिये गये। विनय थरथरा रहा था कि मुझे भी अपनी कोठरी में जाना पड़ेगा; पर न जाने क्यों उसे वहीं पड़ा रहने दिया गया।

रोशनी गुल कर दी गई। चारों ओर सन्नाटा छा गया। विनय उसी उद्विग्न दशा में खड़ा सोच रहा था, कैसे यहाँ से निकलूँ। जानता था कि चारों तरप के द्वार बंद हैं, न रस्सी है, न कोई यंत्र, न कोई सहायक, न कोई मित्र। तिज पर भी वह प्रतीक्षा-भाव से द्वार पर खड़ा था कि शायद कोई हिकमत सूझ जाय। निराशा में प्रतीक्षा अंधे की लाठी है।