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रंगभूमि


अच्छा है। बला से लोग हँसेंगे, आजाद तो हो जाऊँगी। किसी के ताने-मेहने तो न सुनने पड़ेंगे!"

सोफिया उठी, और मन में कोई स्थान निश्चित किये विना ही अहाते से बाहर निकल आई। उस घर की वायु अब उसे दुषित मालूम होती थी। वह आगे बढ़ती जाती थी; पर दिल में लगातार प्रश्न हो रहा था, कहाँ जाऊँ? जब वह घनी आबादी में पहुँची, तो शोहदों ने उस पर इधर-उधर से आवाज कसने शुरू किये। किन्तु वह शर्म से सिर नीचा करने के बदले उन आवाजों और कुवासनामयी दृष्टियों का जवाब घणायुक्त नेत्रों से देती चली जाती थी, जैसे कोई सवेग जल-धारा पत्थरों को ठुकराती हुई आगे बढ़ती चली जाय। यहाँ तक कि वह उस खुली हुई सड़क पर आ गई, जो दशाश्वमेध-घाट की ओर जाती है।

उसके जी में आया, ज़रा दरिया की सैर करती चलूँ। कदाचित् किसी सजन से भेंट हो जाय। जब-तक दो-चार आदमियों से परिचय न हो, और वे मेरा हाल न जानें, मुझसे कौन सहानुभूति प्रकट करेगा? कौन मेरे हृदय की बात जानता है? ऐसे सदय प्राणी सौभाग्य ही से मिलते हैं। जब अपने माता-पिता अपने शत्रु हो रहे हैं, तो दूसरों से भलाई की क्या आशा?

वह इसी नैराश्य की दशा में चली जा रही थी कि सहसा उसे एक विशाल प्रासाद देख पड़ा, जिसके सामने बहुत चौड़ा हरा मैदान था। अंदर जाने के लिए एक ऊँचा फाटक था, जिसके ऊपर एक सुनहरा गुंबद बना हुआ था। इस गुंबद में नौबत बज रही थी। फाटक से भवन तक सुखों की एक रविश थी, जिसके दोनों ओर बेलें और गुलाब की क्यारियाँ थीं। हरी-हरो घास पर बैठे कितने ही नर-नारी माघ की शीतल वायु का आनंद ले रहे थे। कोई लेटा हुआ था, कोई तकियेदार चौकियों पर बैठा सिगार पी रहा था।

सोफिया ने शहर में ऐसा रमणीक स्थान न देखा था। उसे आश्चर्य हुआ कि शहर के मध्य भाग में भी ऐसे मनोरम स्थान मौजूद हैं! वह एक चौकी पर बैठ गई, और सोचने लगी-"अब लोग चर्च से आ गये होंगे। मुझे घर में न देखकर चौंकेंगे तो जरूर; पर समझेंगे, कहीं घूमने गई होगी। अगर रात-भर यहीं बैठी रहूँ, तो भी वहाँ किसी को चिंता न होगी, आराम से खा-पीकर सोयेंगे। हाँ, दादा को अवश्य दुःख होगा, वह भी केवल इसीलिए कि उन्हें बाइबिल पढ़कर सुनानेवाला कोई नहीं। मामा तो दिल में खुश होंगी कि अच्छा हुआ, आँखों से दूर हो गई। मेरा किसी से परिचय नहीं। इसी से कहा है, सबसे मिलते रहना चाहिए, न जाने कब किससे काम पड़ जाय। मुझे बरसों रहते हो गये, और किसी से राह-रस्म न पैदा की। मेरे साथ नैनीताल में यहाँ के किसी रईस की लड़की पढ़ती थी, भला-सा नाम था। हाँ, इंदु। कितना कोमल स्वभाव था! बात-बात से प्रेम टपका पड़ता था। हम दोनों गले में बाँहें डाले टहलती थीं। वहाँ कोई बालिका इतनी सुंदर और ऐसी सुशील न थी। मेरे और उसके विचारों