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रंगभूमि

सूरदास—“यही तेरी मरजी है, तो यही सही। मैं तो सोच रहा था, कहीं चला जाऊँ। न आँखों देखुंगा, न पीर होगी; लेकिन तेरी बिपत देखकर अब जाने की इच्छा नहीं होती। आ, पड़ी रह। जैसी कुछ सिर पर आयेगी, देखी जायगी। तुझे मँझधार में छोड़ देने से बदनाम होना अच्छा है।"

यह कहकर सूरदास भीख माँगने चला गया। सुभागी झोपड़ी में आ बैठी। देखा, तो उस मुख्तसर घर की मुख्तसर गृहस्थी इधर-उधर फैली पड़ी थी। कहीं लुटिया औंधी पड़ी थी, कहीं घड़े लुढ़के हुए थे। महीनों से अंदर सफाई न हुई थी, जमीन पर मनों धूल बैठी हुई थी। फूस के छप्पर में मकड़ियों ने जाले लगा लिये थे। एक चिड़िया का घोंसला भी बन गया था। सुभागी सारे दिन झोपड़ी की सफाई करती रही। शाम को वही घर, जो "बिन घरनी घर भूत का डेरा" को चरितार्थ कर रहा था, साफ- सुथरा, लिपा-पुता नजर आता था कि उसे देखकर देवतों का रहने के लिए जी ललचाये। भैरो तो अपनी दूकान पर चला गया था, सुभागी घर जाकर अपनी गठरी उठा लाई। सूरदास संध्या समय लौटा, तो सुभागी ने थोड़ा-सा चबेना उसे जल-पान करने को दिया, लुटिया में पानी लाकर रख दिया और उसे अंचल से हवा करने लगी। सूरदास को अपने जीवन में कभी यह सुख और शांति न नसीब हुई थी। गृहस्थी के दुर्लभ आनंद का उसे पहली बार अनुभव हुआ। दिन-भर सड़क के किनारे लू और लपट में जलने के बाद यह सुख उसे स्वर्गोपम जान पड़ा। एक क्षण के लिए उसके मन में एक नई इच्छा अंकुरित हो आई। सोचने लगा-"मैं कितना अभागा हूँ। काश यह मेरी स्त्री होती, तो कितने आनंद से जीवन व्यतीत होता! अब तो भैरो ने इसे घर से निकाल ही दिया; मैं रख लूँ, तो इसमें कौन-सी बुराई है! इससे कहूँ कैसे, न जाने अपने दिल में क्या सोचे। मैं अंधा हूँ, तो क्या आदमी नहीं हूँ! बुरा तो न मानेगी? मुझसे इसे प्रेम न होता, तो मेरी इतनी सेवा क्यों करती?"

मनुष्य-मात्र को, जीव-मात्र को, प्रेम की लालसा रहती है। भोग लिप्सी प्राणियों में यह वासना का प्रकट रूप है, सरल-हृदय दीन प्राणियों में शांति-भोग का।

सुभागी ने सूरदास की पोटली खोली, तो उसमें गेहूँ का आटा निकला, थोड़ा-सा चावल, कुछ चने और तीन आने पैसे। सुभागी बनिये के यहाँ से दाल लाई और रोटियाँ बनाकर सूरदास को भोजन करने को बुलाया।

सूरदास-"मिठुआ कहाँ है?"

सुभागी-"क्या जानूँ, कहीं खेलता होगा। दिन में एक बार पानी पीने आया था, मुझे देखकर चला गया"

सूरदास-"तुझसे सरमाता होगा। देख, मैं उसे बुलाये लाता हूँ।"

यह कहकर सूरदास बाहर जाकर मिठुआ को पुकारने लगा। मिठुआ और दिन जब जी चाहता था, घर में जाकर दाना निकाल लाता, भुनवाकर खाता; आज सारे दिन भूखों मरा, इस वक्त मंदिर में प्रसाद के लालच में बैठा हुआ था। आवाज सुनते ही