थोड़ी देर में एक बुड्ढा मिस्त्री उठकर नाचने लगा। बुढ़िया से अब न रहा गया। उसने भी घूँघट निकाल लिया और नाचने लगी। शूद्रों में नृत्य और गान स्वाभाविक गुण हैं, सीखने की जरूरत नहीं। बुड्ढा और बुढ़िया, दोनों अश्लील भाव से कमर हिला-हिलाकर थिरकने लगे। उनके अंगों की चपलता आश्चर्यजनक थी।
भैरो—"मुहल्लेवाले समझते थे, मुझे गवाह ही न मिलेंगे।"
एक—"सब गीदड़ हैं, गीदड़।"
भैरो—"चलो, जरा सत्रों के मुँह में कालिख लगा आयें।"
सब-के-सब चिल्ला उठे-“हाँ-हाँ, नाच होता चले।" एक क्षण में जुलूस चला। सब-के-सब नाचते गाते, ढोल पीटते, ऊल-जठूल बकते, हू-हा करते, लड़खड़ाते हुए चले। पहले बजरंगी का घर मिला। यहाँ सब रुक गये, और गाया-
रात ज्यादा भीग चुकी थी, बजरंगी के द्वार बंद थे। लोग यहाँ से ठाकुरदीन के द्वार पर पहुँचे और गाया-
ठाकुरदीन भोजन कर रहा था, पर डर के मारे बाहर न निकला। जुलूस आगे बढ़ा, तो सूरदास की झोपड़ी मिली।
भैरो बोला--"बस, यहीं डट जाओ।"
"ढोल ढीली पड़ गई।"
“संको, सेंको। झोपड़े में से फूस ले लो।"
एक आदमी ने थोड़ा-सा फूस निकाला, दूसरे ने और ज्यादा निकाला, तीसरे ने एक बोझ खींच लिया। फिर क्या था, नशे की सनक मशहूर ही है, एक ने जलता हुआ फूस झोपड़ी पर डाल दिय और बोला—"होली है, होली है!" कई आदमियों ने कहा- "होली है, होली है!"
भैरो“यारो, यह तुम लोगों ने बुरा किया। भाग चलो, नहीं तो धर लिये जाओगे।"
भय नशे में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। सब-के-सब भागे।
उधर ज्वाला प्रचंड हुई, तो मुहल्ले के लोग दौड़ पड़े। लेकिन फूस की आग किसके वश की थी। झोपड़ा जल रहा था और लोग खड़े दुःख और क्रोध की बातें कर रहे थे।
ठाकुरदीन—"मैं तो भोजन पर बैठा, तभी सबों को आते देखा।"
बजरंगी—"ऐसा जी चाहता है कि जाकर भैरो को मारते-मारते बेदम कर दूँ"