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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३८०

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रंगभूमि


जॉन सेवक—"मेरा कोई दल न है, और न होगा। मैं इसी विचार और उद्देश्य से जाऊँगा कि स्वदेशी व्यापार की रक्षा कर सकूँ। मैं प्रयत्न करूँगा कि विदेशी वस्तुओं पर बड़ी कठोरता से कर लगाया जाय, इस नीति का पालन किये बिना हमारा व्यापार कभी सफल न होगा।"

गंगुली-"इंगलैंड को क्या करेगा?"

जॉन सेवक-"उसके साथ भी अन्य देशों का-सा व्यवहार होना चाहिए। मैं इंगलैंड की व्यवसायिक दासता का घोर विरोधी हूँ।"

गंगुली-(घड़ी देखकर) "बहुत अच्छी बात है, आप खड़ा हो। अभी हमको यहाँ से अकेला जाना पड़ता है। तब दो आदमी साथ-साथ जायगा। अच्छा, अब जाता है। कई आदमियों से मिलना है।"

डॉक्टर गंगुली के बाद जॉन सेवक ने भी घर की राह ली। इंदु मकान पर पहुँची, तो राजा साहब बोले-"तुम कहाँ रह गई?"

इंदु—"रास्ते में डॉक्टर गंगुली और मि० जॉन सेवक मिल गये, बातें होने लगी।"

महेंद्र—"गंगुली को साथ क्यों न लाई?"

इंदु—"जल्दी में थे। आज तो इस अंधे ने कमाल कर दिया।"

महेंद्र—“एक ही धूर्त है। जो उसके स्वभाव से परिचित न होगा, जरूर धोखे में या गया होगा। अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए इससे उत्तम और कोई ढंग ध्यान ही में नहीं आ सकता। इसे चमत्कार कहना चाहिए। मानना पड़ेगा कि उसे मानव-चरित्र का पूरा ज्ञान है। निरक्षर होकर भी आज उसने कितने ही शिक्षित और विचारशील आदमियों को अपना भक्त बना लिया। यहाँ लोग उसका जुर्माना अदा करने के लिए चंदा जमा कर रहे हैं। सुना है, जुलूस भी निकालना चाहते हैं। पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि उसने उस औरत को बहकाया, और मुझे अफसोस है कि और कड़ी सजा क्यों न दी।"

इंदु—"तो आपने चंदा भी न दिया होगा?"

महेंद्र-"कभी-कभी तुम बेसिर-पैर की बातें करने लगती हो। चंदा कैसे देता, अपने मुँह में आप ही थप्पड़ मारता!"

इंदु—"लेकिन मैंने तो दे दिया है। मुझे........"

महेंद्र—"अगर तुमने दे दिया है, तो बुरा किया है।"

इंदु—"मुझे यह क्या मालूम था कि....."

महेंद्र—"व्यर्थ बातें न बनाओ। अपना नाम गुप्त रखने को तो कह दिया है?"

इंदु—"नहीं, मैंने कुछ नहीं कहा।"

महेंद्र-"तो तुमसे ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न होगा। तुमने इंद्रदत्त को रुपये दिये होंगे। इंद्रदत्त यों बहुत विनयशील और सहृदय युवक है, और मैं उसका दिल से आदर करता हूँ। लेकिन इस अवसर पर वह दूसरों से चंदा वसूल करने के लिए