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रंगभूमि


गया। वहाँ से बैरिस्टर होकर आ गया। कई साल तक कचहरी जाकर पेपर पढ़ा करता था। जब फादर का डेथ हो गया, तो डाक्टरी पढ़ने लगा। पिता के सामने हमको यह कहने का हिम्मत नहीं हुआ कि हम कानून नहीं पड़ेगा।"

प्रभु सेवक-"पिता का सम्मान करना दूसरी बात है, सिद्धांत का पालन करना दूसरी बात। अगर आपके पिता कहते कि जाकर किसी के घर में आग लगा दो, तो आर आग लगा देते?"

गंगुली-"नहीं नहीं, कभी नहीं, हम कभी आग न लगाता, चाहे पिताजी हमी को क्यों न जला देता। लेकिन पिता ऐसी आज्ञा दे भी तो नहीं सकता।"

सहसा रानी जाह्नवी ने पदार्पण किया, शोक और क्रोध की मूर्ति, भौंएँ झुकी हुई, माथा सिकुड़ा हुआ, मानों स्नान करके पूजा करने जाते समय कुत्ते ने छू लिया हो। गंगुली को देखकर बोली-"आपकी तबियत काउंसिल से नहीं थकती, मैं तो जिंदगी से थक गई। जो कुछ चाहती हूँ, वह नहीं होता; जो नहीं चाहती, वही होता है। डॉक्टर साहब, सब कुछ सहा जाता है, बेटे का कुत्सित व्यवहार नहीं सहा जाता, विशेषतः ऐसे बेटे का, जिसके बनाने के लिए कोई बात उठा न रखी गई हो। दुष्ट जसवंतनगर के विद्रोह में मर गया होता, तो मुझे इतना दुःख न होता।"

कुँवर साहब और ज्यादा न सुन सके। उठकर बाहर चले गये। रानी ने उसो धुन में कहा-'यह मेरा दुःख क्या समझेंगे! इनका सारा जीवन भोग-विलास में बीता है। आत्मसेवा के सामने इन्होंने आदर्शों की चिंता नहीं की। अन्य रईसों की भाँति सुख-भोग में लिप्त रहे। मैंने तो विनय के लिए कठिन तप किया है, उसे साथ लेकर महीनों पहाड़ों में पैदल चली हूँ, केवल इसीलिए कि छुटपने से ही उसे कठिनाइयों का आदी बनाऊँ। उसके एक-एक शब्द, एक-एक काम को ध्यान से देखती रही हूँ कि उसमें बुरे संस्कार न आ जायँ। अगर वह कभी नौकर पर बिगड़ा है, तो तुरंत उसे समझाया है; कभी सत्य से मुँह मोड़ते देखा, तो तुरंत तिरस्कार किया। यह मेरी व्यथा क्या जानेंगे?”

यह कहते-कहते रानी की निगाह प्रभु सेवक पर पड़ गई, जो कोने में खड़ा किताबें उलट-पलट रहा था। उनकी जबान बंद हो गई। आगे कुछ न कह सकी। सोफिया के प्रति जो कठोर वचन मन में थे, वे मन ही में रह गये। केवल गंगुली से इतना बोली-“जाते समय मुझसे मिल लीजिएगा" और चली गई।


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