जब यहाँ से और आगे चले, तो विनय ने कहा-"पण्डाजी, अब जल्दी से एक मोटर ठीक कर लो। मुझे भय लग रहा है कि कोई मुझे पहचान न ले। अपने प्राणों का इतना भय मुझे कभी न हुआ था। अगर ऐसे ही दो-एक दृश्य और सामने आये, तो शायद मैं आत्मघात कर लूँ। आह! मेरा कितना पतन हुआ है। और अब तक मैं यही समझ रहा था कि मुझसे कोई अनौचित्य नहीं हुआ। मैंने सेवा का व्रत लिया था, घर से परोपकार करने चला था। खूब परोपकार किया! शायद ये लोम मुझे जीवन-पयेत न भूलेंगे।"
नायकराम-"भैया, भूल-चूक आदमी ही से होती है, अब उसका पछतावा न करो।"
विनय-"नायकराम, यह भूल-चूक नहीं है, ईश्वरीय विधान है; ऐसा ज्ञात होता है कि ईश्वर सद्बतधारियों की कठिन परीक्षा लिया करते है। सेवक का पद इन परीक्षाओं में सफल हुए बिना नहीं मिलता। मैं परीक्षा में गिर गया; बुरी तरह गिर गया।"
नायकराम का विचार था कि जरा जेल के दारोगा साहब का कुशल-समाचार पूछते चलें; लेकिन मौका न देखा, तो तुरंत मोटर-सर्विस के दफ्तर में गये। वहाँ मालूम हुआ कि दरबार ने सब मोटरों को एक सप्ताह के लिए रोक लिया है।
मिस्टर क्लार्क के कई मित्र बाहर से शिकार खेलने आये हुए थे। अब क्या हो? नायकराम को घोड़े पर चढ़ना न आता था और विनय को यह उचित न मालूम होता था कि आप तो सवार होकर चलें और वह पाँव-पाँव।
नायकराम-“भैया, तुम सवार हो जाओ, मेरी कौन, अभी अवसर पड़ जाय, तो दस कोस जा सकता हूँ।"
विनय-"तो मै ही ऐसा कौन मरा जाता हूँ। अब रात की थकावट दूर हो गई।"
दोनों आदमियों ने कुछ जलपान किया और उदयपुर चले। आज विनय ने जितनी बात की, उतनी शायद और कभी न की थी, और वह भी नायकराम-जैसे लट्ठ गॅवार से। सोफी की तीव्र आलोचना अब उन्हें सर्वथा न्याय-संगत जान पड़ती थी। बोले-“पण्डाजी, यह समझ लो कि अगर दरबार ने उन सब कैदियों को छोड़ न दिया, जो मेरी शहादत से फँसे हैं, तो मैं अपना मुँह किसी को न दिखाऊँगा। मेरे लिए यही एक आशा रह गई है। तुम घर जाकर माताजी से कह देना कि वह कितना दुखी और अपनी भूल पर कितना लजित था।"
नायकराम-"भैया, तुम घर न जाओगे, तो मैं भी न जाऊँगा। अब तो जहाँ तुम हो, वहीं मैं भी हूँ। जो कुछ बीतेगी, दोनों ही के सिर बीतेगी।"
विनय-"बस, तुम्हारी यही बात बुरी मालूम होती है। तुम्हारा और मेरा कौन-सा साथ है। मैं पातकी हूँ। मुझे अपने पातकों का प्रायश्चित्त करना है। तुम्हारे माथे पर को कलंक नहीं है। तुम अपना जीवन क्यों नष्ट करोगे? मैंने अब तक सोफिया को