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रंगभूमि


थे। यह काम वह सेवकों से नहीं लेते थे। कहते—'यह भी एक विद्या है, कोई हल्दी-मसाला तो है नहीं कि जो चाहे, पीस दे। इसमें बुद्धि खर्च करनी पड़ती है, तब जाकर बूटी बनती है।" कल नागा भी हो गया था। तन्मय होकर भंग पीसते और रामायण की दो-चार चौपाइयाँ, जो याद थीं, लय से गाते जाते थे। इतमे में विनय ने बुलाया।

नायकराम—"क्या है भैया? आज मजेदार बूटी बन रही है। तुमने कभी काई को पी होगी। आज थोड़ी-सी ले लेना, सारी थकावट भाग जायगी।"

विनय—"अच्छा, इस वक्त बूटी रहने दो। अम्माजी का पत्र आया है, घर चलना है, एक ताँगा ठीक कर लो।"

नायकराम—"भैया, तुम्हारे तो सब काम उतावली के होते हैं। घर चलना है, तो कल आराम से चलेंगे। बूटो छानकर रसोई बनाता हूँ। तुमने बहुत कशमीरी रसोइयों का बनाया हुआ खाना खाया है, आज जरा मेरे हाथ के भोजन का भी स्वाद लो।"

विनय—"अब घर पहुँचकर ही तुम्हारे हाथ के भोजन का स्वाद लूँगा।"

नायकराम-"माताजी ने बुलाया होगा।"

विनय—"हाँ, बहुत जल्द।"

नायकराम—"अच्छा, बूटी तो तैयार हो जाय। गाड़ी तो नौ बजे रात को जाती है।"

विनय—"नौ बजने में देर नहीं है। सात तो बन ही गये होंगे।"

नायकराम—"जब तक असबाब बँधवाओ, मैं जल्दी से बनाये लेता हूँ। तकदीर में इतना सुख भी नहीं लिखा है कि निश्चित होकर बूटी तो बनाता।"

विनय—"असबाब कुछ नहीं जायगा। मैं घर से कोई असबाब लेकर नहीं आया था। यहाँ से चलते समय घर की कुंजी सरदार साहब को दे देनी होगी।”

नायकराम—"और यह सारा असबाब?”

विनय—"कह दिया कि मैं कुछ न ले जाऊँगा।"

नायकराम—"भैया, तुम कुछ न लो, पर मैं तो यह दुशाला और यह संदूक जरूर लूंगा। जिधर से दुशाला ओढ़कर निकल जाऊँगा, देखनेवाले लोट जायँगे।"

विनय—"ऐसी घातक वस्तु लेकर क्या करोगे, जिसे देख कर ही सुथराव हो जाय। यहाँ की कोई चीज मत छूना, जाओ।"

नायकराम भाग्य को कोसते हुए घर से निकले, तो घंटे-भर तक गाड़ी का किराया ठीक करते रहे। आखिर जब यह जटिल समस्या किसी विधि न हल हुई, तो एक को जबरदस्ती पकड़ लाये। ताँगेवाला भुनभुनाता हुआ आया--"सब हाकिम-ही-हाकिम तो हैं, मुदा जानवर के पेट को भी तो कुछ मिलना चाहिए। कोई माई का लाल यह नहीं सोचता कि दिन-भर तो बेगार में मरेगा, क्या आप खायगा, क्या जानवर को खिलायेगा, क्या बाल-बच्चों को देगा। उस पर निरखनामा लिखकर गली-गली लटका दिया। बस, ताँगेवाले ही सबको लूटे खाते हैं, और तो जितने अमले-मुलाजिम हैं, सब दूध के धोये हुए हैं। बकचा दो ले, भीख माँग खाय, मगर ताँगा कभी न चलाय।"