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रंगभूमि


कमरे का द्वार खोला। विनय ने पहले तो आगंतुक को रोकना चाहा, गाड़ी में बैठते ही उनका साम्यवाद स्वार्थवाद का रूप धारण कर लेता था, यह भी संदेह हुआ कि डाकू न हों, लेकिन निकट से देखा, तो किसी स्त्री के हाथ थे, अलग हट गये, और एक क्षण में एक स्त्री गाड़ी पर चढ़ आई। विनय देखते ही पहचान गये। वह मिस सोफिया थी। उसके बैठते ही गाड़ी फिर चलने लगी।

सोफिया ने गाड़ी में आते ही विनय को देखा, तो चेहरे का रंग उड़ गया। जी में आया, गाड़ी से उतर जाऊँ। पर वह चल चुकी थी। एक क्षण तक वह हतबुद्धि-सी खड़ी रही, विनय के सामने उसकी आँखें न उठती थीं, तब उसी वृद्धा के पास बैठ गई ओर खिड़की की ओर ताकने लगी। थोड़ी देर तक दोनों मौन बैठे रहे, किसी को बात करने की हिम्मत न पड़ती थी।

वृद्धा ने सोफी से पूछा—“कहाँ जाओगी बेटी?"

सोफिया-"बड़ी दूर जाना है।"

वृद्धा-“यहाँ कहाँ से आ रही हो?"

सोफिया—'यहाँ से थोड़ी दूर एक गाँव है, वहीं से आती हूँ।”

वृद्धा-"तुमने गाड़ी खड़ी करा दी थी क्या?"

सोफिया-"स्टेशनों पर आज कल डाके पड़ रहे हैं। इसी से बीच में गाड़ी रुकवा दी।"

वृद्धा-"तुम्हारे साथ और कोई नहीं है क्या? अकेले कैसे जाओगी?"

सोफिया-"आदमी न हो, ईश्वर तो है!"

वृद्धा-"ईश्वर है कि नहीं, कौन जाने। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि संसार का करता-धरता कोई नहीं है, जभी तो दिन-दहाड़े डाके पड़ते हैं, खून होते हैं। कल मेरे बेटे को डाकुओं ने मार डाला। (रोकर) गऊ था, गऊ। कभी मुझे जवाब नहीं दिया। जेल के कैदी उसको असीस दिया करते थे। कभी किसी भलेमानस को नहीं सताया। उस पर यह वज्र गिरा, तो कैसे कहूँ कि ईश्वर है।"

सोफिया-"क्या जसवंतनगर के जेलर आपके बेटे थे?"

वृद्धा-"हाँ बेटी, यही एक लड़का था, सो भगवान ने हर लिया।"

यह कहकर वृद्धा सिसकने लगी। सोफिया का मुख किसी मरणासन्न रोगी के मुख की भाँति निष्प्रभ हो गया। जरा देर तक वह करुणा के आवेश को दबाये हुए खड़ी रही। तब खिड़की के बाहर सिर निकालकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका कुत्सित प्रतिकार नम रूप में उसके सामने खड़ा था।

सोफी आध घंटे तक मुँह छिपाये रोती रही, यहाँ तक कि वह स्टेशन आ गया, जहाँ वृद्धा उतरना चाहती थी। जब वह उतरने लगी, तो विनय ने उसका असबाब, उतारा और उसे सांत्वना देकर बिदा किया।

अभी विनय गाड़ी में बैठे भी न थे कि सोफी नीचे आकर वृद्धा के सम्मुख खड़ी