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रंगभूमि


विनय ने कहा—"नहीं सोफी, मुझे जाने दो। तुम माताजी को खूब जानती हो। मैं न जाऊँगा, तो वह अपने दिल में मुझे निर्लज्ज, बेहया, कायर समझने लगेंगी और इस उद्विग्नता की दशा में न जाने क्या कर बैठे।"

सोफिया—"नहीं विनय, मुझ पर इतना जुल्म न करो। ईश्वर के लिए दया करो। मैं रानीजी के पास जाकर रोऊँगी, उनके पैरों पर गिरूँगी और उनके मन में तुम्हारे प्रति जो गुबार भरा हुआ है, उसे अपने आँसुओं से धो डालूंगी। मुझे दावा है कि मैं उनके पुत्र-वात्सल्य को जाग्रत कर दूगो। मैं उनके स्वभाव से परिचित हूँ। उनका हृदय दया का आगार है। जिस वक्त मैं उनके चरणों पर गिरकर कहूँगी, अम्माँ, तुम्हारा बेटा मेरा मालिक है, मेरे नाते उसे क्षमा कर दो, उस वक्त वह मुझे पैरों से ठुकरायेंगी नहीं। वहाँ से झुल्लाई हुई उठकर चली जायँगी, लेकिन एक क्षण बाद मुझे बुलायेंगी और प्रेम से गले लगायेंगी। मैं उनसे तुम्हारी प्राण-भिक्षा माँगूंगी, फिर तुम्हें माँग लूँगी। माँ का हृदय कभी इतना कठोर नहीं हो सकता। वह यह पत्र लिखकर शायद इस समय पछता रही होंगी, मना रही होगी कि पत्र न पहुँचा हो। बोलो, वादा करो।"

ऐसे प्रेम में सने, अनुराग में डूबे वाक्य विनय के कानों ने कभी न सुने थे। उन्हें अपना जीवन सार्थक मालूम होने लगा। आह! सोफी अब भी मुझे चाहती है, उसने मुझे क्षमा कर दिया! वह जीवन, जो पहले मरुभूमि के समान निर्जन, निर्जल, निर्जीव था, अब पशु-पक्षियों, सलिल-धाराओं और पुष्प-लतादि से लहराने लगा। आनन्द के कपाट खुल गये थे और उसके अंदर से मधर गान की ताने, विद्यद्वीपों की झलक, सुगंधित वायु की लपट बाहर आकर चित्त को अनुरक्त करने लगी। विनयसिंह को इस सुरम्य दृश्य ने मोहित कर लिया। जीवन के सुख जीवन के दुःख हैं। विराग और आत्मग्लानि ही जीवन के रत्न हैं। हमारी पवित्र कामनाएँ, हमारी निर्मल सेवाएँ, हमारी शुभ कल्पनाएँ विपत्ति ही की भूमि में अंकुरित और पल्लवित होती हैं।

विनय ने विचलित होकर कहा-"सोफी, अम्माँजी के पास एक बार मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि जब तक वह फिर स्पष्ट रूप से न कहेंगी......"

सोफिया ने विनय की गरदन में बाँहें डालकर कहा-"नहीं-नहीं, मुझे तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं, तुम अकेले अपनी रक्षा नहीं कर सकते। तुममें साहस है, आत्माभिमान है, शील है, सब कुछ है, पर धैर्य नहीं। पहले मैं अपने लिए तुम्हें आवश्यक समझती थी, अब तुम्हारे लिए अपने को आवश्यक समझती हूँ। विनय, जमीन की तरफ क्यों ताकते हो? मेरी ओर देखो। मैंने तुम्हें जो कटु वाक्य कहे, उन पर लजित हूँ। ईश्वर साक्षी है, सच्चे दिल से पश्चात्ताप करती हूँ। उन बातों को भूल जाओ। प्रेम जितना ही आदर्शवादी होता है, उतना ही क्षमाशील भी। बोलो। वादा करो। अगर तुम मुझसे गला छुड़ाकर चले जाओगे, तो फिर......तुम्हें सोफी फिर न मिलेगी।"

विनय ने प्रेम-पुलकित होकर कहा—"तुम्हारी इच्छा है, तो न जाऊँगा।"

रोफ़ी—"तो हम अगले स्टेशन पर उतर पड़ेंगे।"