पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४२७

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मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिरअली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-मोटे क्लार्क भी उनका लिहाज करते थे। लेकिन आय-वृद्धि के साथ उनके व्यय में भी खासी वृद्धि हो गई थी। जब यहाँ अपने बराबर के लोग न थे, फटे जूतों पर ही बसर कर लिया करते, खुद बाजार से सौदा-सुलफ लाते, कभी-कभी पानी भी खींच लेते थे। कोई हँसनेवाला न था! अब मिल के कर्मचारियों के सामने उन्हें ज्यादा शान से रहना पड़ता था और कोई मोटा काम अपने हाथ से करते हुए शर्म आती थी। इसलिए विवश होकर एक बुढ़िया मामा रख ली थी। पान-इलायची आदि का खर्च कई गुना बढ़ गया था। उस पर कभी-कभी मित्रों की दावत भी करनी पड़ती थी। अकेले रहनेवाले से कोई दावत की इच्छा नहीं करता। जानता है, दावत फीकी होगी। लेकिन सकुटुंब रहनेवालों के लिए भागने का कोई द्वार नहीं रहता। किसी ने कहा-"खाँ साहब, आज जरा जरदे पकवाइए, बहुत दिन हुए, रोटी-दाल खाते-खाते जबान मोटी पड़ गई।" ताहिरअली को इसके जवाब में कहना ही पड़ता-"हाँ-हाँ, लीजिए, आज ही बनवाता हूँ।" घर में एक ही स्त्री होती, तो उसकी बीमारी का बहाना करके टालते, लेकिन यहाँ तो एक छोड़ तीन-तीन महिलाएँ थीं। फिर ताहिरअली रोटी के चोर न थे। दोस्तों के आतिथ्य में उन्हें आनंद आता था। सारांश यह कि शराफत के निबाह में उनकी बधिया बैठी जाती थी। बाजार में तो अब उनकी रत्ती-भर भी साख न रही थी, जमामार प्रसिद्ध हो गये थे, कोई धेले की चीज को भी न पतियाता, इसलिए मित्रों से हथफेर रुपये लेकर काम चलाया करते। बाजारवालों ने निराश होकर तकाजा करना ही छोड़ दिया, समझ गये कि इसके पास है ही नहीं, देगा कहाँ से। लिपि-बद्ध ऋण अमर होता है, वचन बद्ध ऋण निर्जीव और नश्वर। एक अरबी घोड़ा है, जो एड़ नहीं सह सकता; या तो सवार का अंत कर देगा या अपना। दूसरा लद्दू टट्टू है, जिसे उसके पैर नहीं, कोड़े चलाते हैं; कोड़ा टूटा या सवार का हाथ रुका, और टट्टू बैठा, फिर नहीं उठ सकता।

लेकिन मित्रों के आतिथ्य-सत्कार ही तक रहता, तो शायद ताहिरअली किसी तरह खींच-तानकर दोनों चूल बराबर कर लेते। मुसीबत यह थी कि उनके छोटे भाई माहिरअली इन दिनों मुरादाबाद के पुलिस-ट्रेनिंगस्कूल में भरती हो गये थे। वेतन पाते ही उसका आधा आँखें बंद करके मुरादाबाद भेज देना पड़ता था। ताहिरअली खर्च से डरते थे, पर उनकी दोनों माताओं ने उन्हें ताने देकर घर में रहना मुश्किल कर दिया। दोनों ही की यह हार्दिक लालसा थी कि माहिरअली पुलिस में जाय और दारोगा बने। बेचारे ताहिरअली महीनों तक हुकाम के बँगलों की खाक छानते रहे; यहाँ जा, वहाँ जा;