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रंगभूमि


बच्चों की होती है। उनके लिए बाजार मौजूद है। फाका तो हमारे लिए है। उनका फाका तो महज दिखावा है!"

ताहिरअली ने इस मिथ्या आक्षेप पर क्षुब्ध होकर कहा-"क्यों जलाती हो अम्मी-जान! खुदा गवाह है, जो बच्चे के लिए धेले की भी कोई चीज ली हो। मेरी नीयत तो कभी ऐसी न थी, न है, न होगी, यों तुम्हारी तबीयत है, जो चाहो, समझो।"

रकिया--"दोनों बच्चे रात-भर तड़पते रहे, 'अम्माँ रोटी, अम्माँ रोटी! पूछो, अम्माँ क्या आप रोटी हो जाय! तुम्हारे बच्चे और नहीं तो ओवरसियर के घर चले जाते हैं, वहाँ से कुछ-न-कुछ खा-पी आते हैं। यहाँ तो मेरी ही जान खाते हैं।"

जैनब-"अपने बाल-बच्चों को खिलाने-न खिलाने का तुम्हें अख्तियार है। कोई तुम्हारा हिसाबिया तो है नहीं, चाहे शीरमाल खिलाओ या भूखों रखो। हमारे बच्चों को तो घर की रूखी रोटियों के सिवा और कहीं ठिाकना नहीं। यहाँ कोई वली नहीं है, जो फाकों से जिंदा रहे। जाकर कुछ इंतजाम करो।"

ताहिरअली बाहर आकर बड़ी देर तक घोर चिंता में खड़े रहे। आज पहली बार उन्होंने अमानत के रुपये को हाथ लगाने का दुस्साहस किया। पहले इधर-उधर देखा, कोई खड़ा तो नहीं है, फिर बहुत धीरे से लोहे का संदूक खोला। यो दिन में सैकड़ों बार वही संदूक खोलते, बंद करते थे, पर इस वक्त उनके हाथ थर-थर काँप रहे थे। आखिर उन्होंने रुपये निकाल लिये, तब सेफ बंद किया। रुपये लाकर जैनब के सामने फेंक दिये और बिना कुछ कहे-सुने बाहर चले गये। दिल को यों समझाया-"अगर खुदा को मंजूर होता कि मेरा ईमान सलामत रहे, तो क्यों इतने आदमियों का बोझ मेरे सिर डाल देता। यह बोझ सिर पर रखा था, तो उसके उठाने की ताकत भी तो देनी चाहिए थी! मैं खुद फाके कर सकता हूँ, पर दूसरों को तो मजबूर नहीं कर सकता। अगर इस मजबूरी की हालत में खुदा मुझे सजा के काबिल समझे, तो वह मुंसिफ नहीं है।" इस दलील से उन्हें कुछ तस्कीन हुई। लेकिन मि० जॉन सेवक तो इस दलील से माननेवाले आदमी न थे। ताहिरअली सोचने लगे, कौन चमार सबसे मोटा है, जिसे आज रुपये न दूं, तो ची-चपड़ न करे। नहीं, मोटे आदमी के रुपये रोकना मुनासिब नहीं, मोटे आदमी निडर होते हैं। कौन जाने, किसी से कह ही बैठे। जो सबसे गरीब, सबसे सीधा हो, उसी के रुपये रोकने चाहिए। इसमें कोई डर नहीं। चुपके से बुलाकर अँगूठे के निशान बनवा लूँगा। उसकी हिम्मत ही न पड़ेगी कि किसी से कहे। उस दिन से उन्हें जब, जरूरत पड़ती, रोकड़ से रुपये निकाल लेते, फिर रख देते। धीरे-धीरे रुपये पूरे कर देने की चिंता कम होने लगी। रोकड़ के रुपयों में कमी पड़ने लगी। दिल मजबूत होता गया। यहाँ तक कि छठा महीना जाते-जाते वह रोकड़ के पूरे डेढ़ सौ रुपये खर्च कर चुके थे।

अब ताहिरअली को नित्य यही चिंता सवार रहती कि कहीं बात खुल न जाय। चमारों से ललो-चप्पो की बातें करते। कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहते थे कि