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रंगभूमि


चाहते हैं, यह असभव है। मुझे रईसों पर पहले भी विश्वास न था, और अब तो निराशा-सी हो गई है।"

कुँवर—"तुम मेरी गिनती रईसों में क्यों करते हो, जब तुम्हें खूब मालूम है कि मुझे रियासत की परवा नहीं । लेकिन कोई काम धन के बगैर तो नहीं चल सकता। मैं नहीं चाहता कि अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं की भाँति इस संस्था को भी धनाभाव के कारण हम टूटते देखें।”

प्रभु सेवक—"मैं बड़ी-से-बड़ी जायदाद को भी सिद्धांत के लिए बलिदान कर देने में दरेग न करूँगा।"

कुँवर—"मैं भी न करता, यदि जायदाद मेरी होती। लेकिन यह जायदाद मेरे वारिसों की है, और मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनकी इच्छा के बगैर उनकी जायदाद की उत्तर-क्रिया कर दूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे कर्मों का फल मेरी संतान को भोगना पड़े।"

प्रभु सेवक—"यह रईसों की पुरानी दलील है। वे अपनी वैभव-भक्ति को इसी परदे की आड़ में छिपाया करते हैं। अगर आपको भय है कि हमारे कामों से आपकी जायदाद को हानि पहुँचेगी, तो बेहतर है कि आप इस संस्था से अलग हो जायँ।"

कुँवर साहब ने चिंतित स्वर में कहा—"प्रभु, तुम्हें मालूम नहीं है कि इस संस्था की जड़ अभी कितनी कमजोर है। मुझे भय है कि यह अधिकारियों की तीव्र दृष्टि को एक क्षण भी सहन नहीं कर सकती। मेरा और तुम्हारा उद्देश्य एक ही है; मैं भी वही चाहता हूँ, जो तुम चाहते हो। लेकिन मैं बूढ़ा हूँ, मंद गति से चलना चाहता हूँ; तुम जवान हो, दौड़ना चाहते हो। मैं भी शासकों का कृपापात्र नहीं बनना चाहता। मैं बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ कि हमारा भाग्य हमारे हाथ में है, अपने कल्याण के लिए जो कुछ करेंगे, हमीं करेंगे, दूसरों से सहानुभूति या सहायता की आशा रखना व्यर्थ है । किंतु कम-से-कम हमारी संस्थाओं को जीवित तो.रहना चाहिए। मैं इसे अधिकारियों के संदेह की भेंट करके उसका अंतिम संस्कार नहीं करना चाहता।”

प्रभु सेवक ने कुछ उत्तर न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मन में निश्चय किया कि अगर कुँवर साहब ने ज्यादा ची-चपड़ की, तो उन्हें इस संस्था से अलग कर देंगे। धन का प्रश्न इतना जटिल नहीं है कि उसके लिए संस्था के मर्मस्थल पर आघात किया जाय। इंद्रदत्त ने भी यही सलाह दी-"कुँवर साहब को पृथक् कर देना चाहिए। हम ओषधियाँ बाँटने और अकाल-पीड़ित प्रांतों में मवेशियों का चारा ढोने के लिए नहीं हैं। है वह भी हमारा काम, इससे हमें इनकार नहीं; लेकिन मैं उसे इतना गुरु नहीं समझता। यह विध्वंस का समय है, निर्माण का समय तो पीछे आयेगा। प्लेग, दुर्भिक्ष और बाढ़ से दुनिया कभी वीरान नहीं हुई और न होगी।"

क्रमशः यहाँ तक नौबत पहुँची कि अब कितनी ही महत्त्व की बातों में ये दोनों आदमी कुँवर साहब से परामर्श तक न लेते, बैठकर आपस ही में निश्चय कर लेते।