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रंगभूमि


को अपनी ओर श्रद्धा-पूर्ण नेत्रों से ताकते देखकर उनका हृदय पुलकित हो उठा। गैलरी में योरपियन महिलाएँ भी अस्थित थीं। प्रांत के गवर्नर महोदय भी आये हुए थे। जिसकी कलम में यह जादू है, उसकी वाणी में क्या कुछ चमत्कार न होगा! सब यही देखना चाहते थे।

प्रभु सेवक का व्याख्यान शुरू हुआ। किसी को उनका परिचय कराने की जरूरत न थी। राजनीति की दार्शनिक मीमांसा करने लगे। राजनीति क्या है? उसकी आवश्यकता क्यों है? उसके पालन का क्या विधान है? किन दशाओं में उसकी अवज्ञा करना प्रजा का धर्म हो जाता है? उसके गुण-दोष क्या हैं! उन्होंने बड़ी विद्वत्ता और अत्यंत निर्भीकता के साथ इन प्रश्नों की व्याख्या की। ऐसे जटिल और गहन विषय को अगर कोई सरल, बोधगम्य और मनोरंजक बना सकता था, तो वह प्रभु सेवक थे। लेकिन राजनीति भी संसार की उन महत्त्व-पूर्ण वस्तुओं में है, जो विश्लेषण और विवेचना की आँच नहीं सह सकती। उसका विवेचन उसके लिए घातक है, उस पर अज्ञान का परदा रहना ही अच्छा है। प्रभु सेवक ने परदा उठा दिया-सेनाओं के परे आँखों से अदृश्य हो गये, न्यायालय के विशाल भवन जमीन पर गिर पड़े, प्रभुत्व और ऐश्वर्य के चिह्न मिटने लगे, सामने मोटे और उज्ज्वल अक्षरों में लिखा हुआ था-"सर्वोत्तम राजनीति राजनीति का अंत है।" लेकिन ज्यों ही उनके मुख से ये शब्द निकले- "हमारा देश राजनीति-शून्य है। परवशता और आज्ञाकारिता में सीमाओं का अतर है।" त्यों ही सामने से पिस्तौल छूटने की आवाज आई, और गोली प्रभु सेवक के कान के पास से निकलकर पीछे की ओर दीवार में लगी। रात का समय था; कुछ पता न चला, किसने यह आघात किया। संदेह हुआ, किसी योरपियन की शरारत है। लोग गैलरियों की ओर दौड़े। सहसा प्रभु सेवक ने उच्च स्वर से कहा- “मैं उस प्राणी को क्षमा करता हूँ, जिसने मुझ पर आघात किया है। उसका जी जाहे, तो वह फिर मुझ पर निशाना मार सकता है। मेरा पक्ष लेकर किसी को इसका प्रतिकार करने का अधिकार नहीं है। मैं अपने विचारों का प्रचार करने आया हूँ, आघातों का प्रत्याघात करने नहीं।"

एक ओर से आवाज आई—"यह राजनीति की आवश्यकता का उज्ज्वल प्रमाण है।"

सभा उठ गई। योरपियन लोग पीछे के द्वार से निकल गये। बाहर सशस्त्र पुलिस आ पहुँची थी।

दूसरे दिन संध्या को प्रभु सेवक के नाम तार आया--"सेवक-दल की प्रबंध-कारिणी समिति आपके व्याख्यान को नापसंद करती है, और अनुरोध करती है कि आप लौट आयें, वरना यह आपके व्याख्यानों की उत्तरदायी न होगी।"

प्रभु सेवक ने तार के कागज को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला और उसे पैरों से कुचलते हुए आप-ही-आप बोले—"धूर्त, कायर, रँगा हुआ सियार! राष्ट्रीयता का दम भरता है, जाति की सेवा करेगा! एक व्याख्यान ने कायापलट कर दी। उँगली में लहू लगाकर शहीदों में नाम लिखाना चाहता है! जाति-सेवा को बच्चों का खेल समझ रखा