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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४५१

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रंगभूमि


भी उन्होंने यह सिद्धि प्राप्त करने का निश्चय किया। उन्हे उससे किसी फल की आशा न थी, केवल उसकी परीक्षा लेना चाहते थे।

लेकिन कहीं सचमुच इस जड़ी में कुछ चमत्कार हो, तो फिर क्या पूछना! इस कल्पना ही से उनका हृदय पुलकित हो उठा। सोफिया मेरी हो जायगी। तब उसके प्रेम में और ही बात होगी!

ज्यों ही मंगल का दिन आया, वह नदी पर गये, स्नान किया और चाकू से अपनी एक उँगली काटकर उसके रक्त में जड़ी को भिगोया, और तब उसे एक ऊँची चट्टान पर पत्थरों से ढककर रख आये। पंद्रह दिन तक लगातार यही क्रिया करते रहे। ठंड ऐसी पड़ती थी कि हाथ-पाँव गले जाते थे, बरतनों में पानी जम जाता था। लेकिन विनय नित्य स्नान करने जाते। सोफिया ने उन्हें इतना कर्मनिष्ठ न देखा था। कहती, इतने सबेरे न नहाओ, कहीं सरदी न लग जाय, जंगली आदमी भी दिन भर अँगीठियाँ जलाये बैठे रहते हैं, बाहर मुँह नहीं निकाला जाता, जरा धूप निकल आने दिया करो। लेकिन विनय मुस्किराकर कह देते, बीमार पड़ेगा, तो कम-से-कम तुम मेरे पास बैठोगी तो! उनकी कई उँगलियों में घाव हो गये, पर वह इन घावों को छिपाये रहते थे।

इन दिनों विनय को दृष्टि सोफिया की एक-एक बात, एक-एक गति पर लगी रहती थी। वह देखना चाहते थे कि मेरी क्रिया का कुछ असर हो रहा है या नहीं, किंतु कोई प्रत्यक्ष फल न दिखाई देता था। पंद्रहवें दिन जाकर उन्हें सोफिया के व्यवहार में कुछ थोड़ा-सा अंतर दिखाई पड़ा। शायद किसी और समय उनका इस ओर ध्यान भी न जाता, किंतु आजकल तो उनकी दृष्टि बहुत सूक्ष्म हो गई थी। जब वह घर से बाहर जाने लगे, तो सोफिया अज्ञात भाव से निकल आई और कई फलांग तक उनसे बातें करती हुई चली गई। जब विनय ने बहुत आग्रह किया, तब लौटी। विनय ने समझा, यह उसी क्रिया का असर है।

आज से धूनी देने की क्रिया आरंभ होती थी। विनय बहुत चिंतित थे—“यह क्रिया क्योंकर पूरी होगी! अकेले सोफी के कमरे में जाना सभ्यता, सज्जनता और शिष्टता के विरुद्ध है। कहीं सोफो जाग जाय और मुझे देख ले, तो मुझे कितना नीच समझेगी। कदाचित् सदैव के लिए मुझसे घृणा करने लगे। न भी जागे, तो भी यह कौन-सी भलमंसी है कि कोई आदमी किसी युवती के कमरे में प्रवेश करे। न जाने किस दशा में लेटी होगी। संभव है, केश खुले हों, वस्त्र हट गया हो। उस समय मेरी मनोवृत्तियाँ कितनी कुचेष्ट हो जायँगी। मेरा कितना नैतिक पतन हो गया है!"

सारे दिन वह इन्हीं अंशांतिमय विचारों में पड़े रहे, लेकिन संध्या होते ही वह कुम्हार के घर से एक कच्चा प्याला लाये और उसे हिफाजत से रख दिया। मानव-चरित्र की एक विचित्रता यह है कि हम बहुधा ऐसे काम कर डालते हैं, जिन्हें करने की इच्छा हमें नहीं होती। कोई गुप्त प्रेरणा हमें इच्छा के विरुद्ध ले जाती है।

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