[३९]
तीसरे दिन यात्रा समाप्त हो गई, तो संध्या हो चुकी थी। सोफिया और विनय दोनों डरते हुए गाड़ी से उतरे कि कहीं किसी परिचित आदमी से भेंट न हो जाय। सोफिया ने सेवा-भवन (विनयसिंह का घर) चलने का विचार किया, लेकिन आज वह बहुत कातर हो रही थी, रानीजी न जाने कैसे पेश आयें। वह पछता रही थी कि नाहक यहाँ आई; न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। अब उसे अपने ग्रामीण जीवन की याद आने लगी। कितनी शांति थी, कितना सरल जीवन था; न कोई विघ्न था, न बाधा; न किसी से द्वेष था, न मत्सर। विनयसिंह उसे तस्कीन देते हुए बोले-"दिल मजबूत रखना, जरा भी मत डरना, सच्ची घटनाएँ बयान करना, बिलकुल सच्ची, तनिक भी अतिशयोक्ति न हो, जरा भी खुशामद न हो। दया-प्रार्थना का एक शब्द भी मुख से मत निकालना। मैं बातों को घटा-बढ़ाकर अपनी प्राण-रक्षा नहीं करना चाहता! न्याय और शुद्ध न्याय चाहता हूँ। यदि वह तुमसे अशिष्टता का व्यवहार करें, कटु वचनों का प्रहार करने लगें, तो तुम क्षण-भर भी मत ठहरना। प्रातःकाल आकर मुझसे एक-एक बात कहना। या कहो, तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ?”
सोफी उन्हें साथ ले चलने पर राजी न हुई। विनय तो पाँडेपुर की तरफ चले, वह सेवा-भवन की ओर चली। ताँगेवाले ने कहा- "मिस साहब, आप कहीं चली गई थीं क्या? बहुत दिनों बाद दिखलाई दीं।" सोफी का कलेजा धक-धक करने लगा। बोली---"तुमने मुझे कब देखा? मैं तो इस शहर में पहली ही बार आई हूँ।"
ताँगेवाले ने कहा-"आप ही जैसी एक मिस साहब यहाँ सेवक साहब की बेटी भी थीं। मैंने समझा, आप ही होंगी।"
सोफिया-"मैं ईसाई नहीं हूँ।"
जब वह सेवा-भवन के समीप पहुँची, तो ताँगे से उतर पड़ी। वह रानीजी से मिलने के पहले अपने आने की कानोंकान भी खबर न होने देना चाहती थी। हाथ में अपना बैग लिये हुए ड्योढ़ी पर गई और दरबान से बोली-'जाकर रानीजी से कहो, मिस सोफिया आपसे मिलना चाहती हैं।"
दरबान उसे पहचानता ही था। उठकर सलाम किया और बोला-"हजूर भीतर चले, इतला क्या करनी है! बहुत दिनों बाद आपके दरसन हुए।"
सोफिया-"मैं बहुत अच्छी तरह खड़ी हूँ। तुम जाकर इत्तिला तो दो।"
दरबान-“सरकार, उनका मिजाज आप जानती ही हैं। बिगड़ जायँगी कि उन्हें साथ क्यों न लाया, इतला क्यों देने आया।"
सोफिया-"मेरी खातिर से दो-चार बातें सुन लेना।"
दरबान अंदर गया, तो सोफिया क 'दिल इस तरह धडक रहा था, जैसे कोई पत्ता