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रंगभूमि


प्याला था, जिसे मैंने अपने हाथों उसे पिलाया; कटार थी, जिसे मैंने अपने हाथों उसकी गरदन पर फेरा! मैंने लिखा था, तुम इस योग्य नहीं हो कि मैं तुम्हें अपना पुत्र समझूँ, तुम मुझे अपनी सूरत न दिखाना। और भी न जाने कितनी कठोर बातें लिखी थीं। याद करती हूँ, तो छाती फटने लगती है। यह पत्र पाते ही वह बिना किसी से कुछ कहे-सुने नायकराम के साथ यहाँ आने के लिए तैयार हो गया। कई स्टेशनों तक नायकराम उसके साथ आये। पण्डाजी को फिर नींद आ गई। और जब आँख खुली, तो विनय का कहीं गाड़ी में पता न था। उन्होंने सारी गाड़ी तलाश की। फिर उदयपुर तक गये। रास्ते में एक-एक स्टेशन पर उतरकर पूछ-ताछ की, पर कुछ पता न चला।बेटी, यह इस अभागिनी की राम-कथा है। मैं हत्यारिन हूँ! मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में और कौन होगी? न जाने विनय का क्या हाल हुआ! कुछ पता नहीं। उसमें बड़ा आत्माभिमान था बेटी, बड़ा बात का धनी था। मेरी बातें उसके दिल पर चोट कर गई। मेरे प्यारे लाल ने कभी सुख न पाया। उसका सारा जीवन तपस्या ही में कटा।"

यह कहकर रानी फिर रोने लगी। सोफी भी रो रही थी। पर दोनों के मनोभावों में कितना अंतर था! रानी के आँसू दुःख, शोक और विषाद के थे, सोफी के आँसू हर्ष और उल्लास के।

एक क्षण में रानीजी ने पूछा-"क्यों बेटी, तुमने उसे जेल में देखा था, तो बहुत दुबला हो गया था?”

सोफी-“जी हाँ, पहचाने न जाते थे।"

रानी-"उसने समझा, विद्रोहियों ने तुम्हारे साथ न जाने क्या व्यवहार किया हो। बस, इस बात पर उसे जिद पड़ गई। आराम से बैठो बेटी, अब यही तुम्हारा घर है। अब मेरे लिए तुम्हीं विनय को प्रतिच्छाया हो। अब यह बताओ, तुम इतने दिनों कहाँ थीं? इंद्रदत्त तो कहता था कि तुम विनय का तिरस्कार करने के तीन ही चार दिन बाद वहाँ से चली आई थीं। इतने दिनों कहाँ रहीं? साल-भर से ऊपर तो हो गया होगा।"

सोफिया का हृदय आनंद से गद्गद हो रहा था। जी में तो आया कि इसी वक्त सारा वृत्तांत कह सुनाऊँ, माता की शोकाग्नि शांत कर दूँ। पर भय हुआ कि कहीं इनका धर्माभिमान फिर न जाग्रत हो जाय। विनय की ओर से तो अब वह निरिमन हो गई थी। केवल अपने ही विषय में शंका थी। देवता को न पाकर हम पाषाण-प्रतिष्ठा करते हैं। देवता मिल जाय, तो पत्थर को कौन पूजे १ बोली-"क्या बताऊँ, कहाँ थी? इधर-उधर भटकती फिरती थी। और शरण ही कहाँ थी! अपनी भूल पर पछताती और रोती थी। निराश होकर यहाँ चली आई।"

रानी-"तुम व्यर्थ इतने दिनों कष्ट उठाती रहीं। तुम्हारा यह क्या घर न था? बुरा न मानना बेटी, तुमने विनय के साथ बड़ा अन्याय किया। उतना ही, जितना मैंने। तुम्हारी बात उसे और भी ज्यादा लगी; क्योंकि उसने जो कुछ किया था, तुम्हारे ही