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रंगभूमि


लेता। कहता है—यह बेवफा जात होती है। भैया विनयसिंह ने जिसके लिए बदनामी सही, जान पर खेले, वही उनसे आँखें फेर ले! कान पकड़े, अब तो मर जाऊँगा, पर ब्याह न करूँगा। अपना हाथ बढ़ाओ विनय! सोफी, यह हाथ लो, तो मुझे इतमीनान हो जाय कि तुम्हारे दिल साफ हो गये। जाह्नवी, चलो, हम लोग बाहर चलें, इन्हें एक दूसरे को मनाने दो। इन्हें कितनी हो शिकायतें करनी होंगी, बातें करने के लिए विकल हो रहे होंगे। आज बड़ा शुभ दिन है।"

जब एकांत हुआ, तो सोफी ने पूछा-"तुम इतनी जल्द कैसे आ गये?"

विनय ने सकुचाते हुए कहा-"सोफ़ी, मुझे यहाँ मुँह छिपाकर बैठते हुए शर्म आती थी। प्राण-भय से दबक जाना कायरों का काम है। माताजी की जो इच्छा हो, वही सही। नायकराम कहता रहा, पहले मिस साहब को आ जाने दो, लेकिन मुझसे न रहा गया।"

सोफिया-"खैर, अच्छा ही हुआ, खूब आ गये। माताजी तुम्हारी चर्चा करके आठ-आठ आँसू रोती थीं। उनका दिल तुम्हारी तरफ से साफ हो गया है।"

विनय-"तुम्हें तो कुछ नहीं कहा?”

सोफिया-"मुझसे तो ऐसा टूटकर गले मिली कि मैं चकित हो गई। यह उन्हीं कठोर वचनों का प्रभाव है, जो मैंने तुम्हें कहे थे। माता आप चाहे पुत्र को कितनी ही ताड़ना दे, यह गवारा नहीं करती कि कोई दूसरा उसे कड़ी निगाह से भी देखे। मेरे अन्याय ने उनकी न्याय-भावना को जाग्रत कर दिया।”

विनय-"हम लोग बड़े शुभ मुहूर्त में चले थे।"

सोफ़िया-"हाँ विनय, अभी तक तो कुशल से बीती। आगे की ईश्वर जाने।"

विनय—"हम अपना दुःख का हिस्सा भोग चुके।"

सोफिया ने आशंकित स्वर से कहा-"ईश्वर करें, ऐसा ही हो।"

किन्तु सोफिया के अंतःस्थल में अनिष्ट-शंका का प्रतिबिंब दिखाई दे रहा था। वह उसे प्रकट न कर सकती थी, पर उसका चित्त उदास था। संभव है कि जन्मगत धार्मिक संस्कारों से विमुख हो जाने का खेद इसका कारण हो। अथवा वह इसे वह अतिवृष्टि समझ रही हो, जो अनावृष्टि की सूचना देती है। कह नहीं सकते, पर जब सोफा रात को भोजन करके सोई, तो उसका चित्त किसी बोझ से दबा हुआ था।