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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४६५

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रंगभूमि


एक दिन बजरंगी ने सूरदास से कहा—"सूरे, लड़के बरबाद हुए जाते हैं। जब देखो, चकले ही में डटे रहते हैं। घिसुआ में चोरी की बान कभी न थी। अब ऐसा हथलपका हो गया है कि सौ जतन से पैसे रख दो, खोजकर निकाल लेता है।"

जगधर सूरदास के पास बैठा हुआ था। ये बातें सुनकर बोला-"मेरी भी वही दसा है भाई! बिद्याधर को कितना पढ़ाया-लिखाया, मिडिल तक खींच-खाँचकर ले गया, आप भूखा रहता था, घर के लोग कपड़ों को तरसते थे, पर उसके लिए किसी बात की कमी न थी। आशा थी, चार पैसे कमायेगा, मेरा बुढ़ापा कट जायगा, घर-बार सँभालेगा, बिरादरी में मरजाद बढ़ायेगा। सो अब रोज वहाँ जाकर जुआ खेलता है। मुझसे बहाना करता है कि वहाँ एक बाबू के पास काम सीखने जाता हूँ। सुनता हूँ, किसी औरत से उसकी आसनाई हो गई है। अभी पुतली-घर के कई मजूर उसे खोजते हुए मेरे घर आये थे। उसे पा जायँ, तो मार-पीट करें। वे भी उसी औरत के आसना हैं। मैंने हाथ-पैर पड़कर उनको बिदा किया। यह कारखाना क्या खुला, हमारी तबाही आ गई! फायदा जरूर है, चार पैसे की आमदनी है, पहले एक ही, खोंचा न विकता था, अब तीन-तीन बिक जाते हैं, लेकिन ऐसा सोना किस काम का, जिससे कान फटे!"

बजरंगी—"अजी, जुआ ही खेलता, तब तक गनीमत थी, हमारा घीसू तो अबारा हो गया है। देखते नहीं हो, सूरत कैसी बिगड़ गई है! कैसी देह निकल आई थी! मुझे पूरी आसा थी कि अब की दंगल मारेगा, अखाड़े का कोई पट्ठा उसके जोड़ का नहीं है, मगर जब से चकले की चाट पड़ गई है, दिन-दिन घुलता जाता है। दादा को तुमने देखा था न? दस-पाँच कोस के गिर्द में कोई उनसे हाथ न मिला सकता था, चुटकी से सुपारी तोड़ देते थे। मैंने भी जवानी में कितने ही दंगल मारे। तुमने तो देखा ही था, उस पंजाबी को कैसा मारा कि पाँच सौ रुपये इनाम पाये और अखबारों में दूर-दूर तक नाम हो गया। कभी किसी माई के लाल ने मेरी पीठ में धूल नहीं लगाई। तो बात क्या थी? लँगोट के सच्चे थे। मोछे निकल आई थीं, तब तक किसी औरत का मुँह नहीं देखा था। ब्याह भी हो गया, तब भी मेहनत-कसरत की धुन में औरत का ध्यान ही न करते थे। उसो के बल पर अब भी दावा है कि दस-पाँच का सामना हो जाय, तो छक्के छुड़ा दूं, पर इस लौंडे ने डोंगा डुबा दिया। घूरे उस्ताद कहते थे कि इसमें दम ही नहीं है, जहाँ दो पकड़ हुए, बस, भैंसे की तरह हाँफने लगता।"

सूरदास--"मैं अंधा आदमी लौंडों के ये कौतुक क्या जानूँ, पर सुभागी कहती है कि मिठुआ के ढंग अच्छे नहीं हैं। जब से टेसन पर कुली हो गया है, रुपये-आठ आने रोज कमाता है, मुदा कसम ले लो, जो घर पर एक पैसा भी देता हो। भोजन मेरे सिर करता है; जो कुछ पाता है, नसे-पानी में उड़ा देता है।"

जगधर-"तुम भी तो झूठमूठ लाज दो रहे हो। निकाल क्यों नहीं देने घर से?