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रंगभूमि


"क्या करूँ, मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ती। डरता कहीं शोर मचा दे, तो आफत आ जाय। तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ गई थी?"

विद्याधर—"तुम्हारा सिर, जाहिल-जपाट तो हो। मासूक अपने आसिक को आज-माता है कि इसमें कुछ जीवट भी है कि यों ही छैला बना फिरता है। औरत उसी को प्यार करती है, जो दिलावर हो, निडर हो, आग में कूद पड़े।"

घीसू—"तुम तैयार हो?"

विद्याधर—"हाँ, आज ही।"

मिठुआ-"मगर देख लेना, दादा द्वार पर नीम के नीचे सोते हैं।"

घीसू-"इसका क्या डर। एक धक्का दूँगा, दूर जाके गिरेगा।"

तीनों मिस्कौट करते, इस षड्यंत्र के दाँव-पेंच सोचते हुए, कुली बाजार की तरफ चले गये। वहाँ तीनों ने शराब पी, दस-ग्यारह बजे रात तक बैठे गाना-बजाना सुनते रहे। मदिरालयों में स्वर-हीन कानों के लिए संगीत की कभी कमी नहीं रहती। तीनों नशे में चूर होकर लौटे, तो घीसू बोला-"सलाह पक्की है न? आज वारा-न्यारा हो जाय, चित पड़े, या पट।”

आधी रात बीत चुकी थी। चौकीदार पहरा देकर जा चुका था। घीसू और विद्या-धर सूरदास के द्वार पर आये।

घीसू-"तुम आगे चलो, मैं यहाँ खड़ा हूँ।"

विद्याधर-"नहीं, तुम जाओ। तुम गँवार आदमी हो। कोई देख लेगा, तो बात भी न बना सकोगे।"

नशे ने घीसू को आपे से बाहर कर रखा था। कुछ यह दिखाना भी मंजूर था कि तुम लोग मुझे जितना बोदा समझते हो, उतना बोदा नहीं हूँ। झोपड़ी में घुस ही तो पड़ा, और जाकर सुभागी की बाँह पकड़ ली। सुभागी चौंककर उठ बैठी और जोर से बोली-“कौन है? हट।”

घीसू-"चुप-चुप, मैं हूँ।"

सुभागी-"चोर-चोर! चोर चोर!"

सूरदास जगा। उठकर मड़ैया में जाना चाहता था कि किसी ने उसे पकड़ लिया। उसने डाँटकर पूछा, कौन है? जब कुछ उत्तर न मिला, तब उसने भी उस आदमी का हाथ पकड़ लिया और चिल्लाया-चोर! चोर! मुहल्ले के लोग ये आवाजें सुनते ही लाठियाँ लेकर निकल पड़े। बजरंगी ने पूछा, कहाँ गया कहाँ? सुभागी बोली, मैं पकड़े हुए हूँ। सूरदास ने कहा, एक को मैं पकड़े हुए हूँ। लोगों ने आकर देखा, तो भीतर सुभागी घीसू को को पकड़े हुए है, बाहर सूरदास विद्याधर को। मिठुआ नायकराम के द्वार पर खड़ा था। यह हुल्लड़ सुनते ही भाग खड़ा हुआ। एक क्षण में सारा मुहल्ला टूट पड़ा। चोर को पकड़ने के लिए बिरले ही निकलते हैं, पकड़े गये चोर पर पँचलत्तियाँ

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