चौकीदार ने ठाकुरदीन को फूटते देखा, तो डरा कि कहीं अंधा दो-चार आदमियों को और फोड़ लेगा, तो हम झूठे पड़ेंगे। बोला—"हाँ, जमाव क्यों नहीं था।"
सूरदास—"घीसू को सुभागी पकड़े हुए थी कि नहीं? बिद्याधर को मैं पकड़े हुए था कि नहीं?"
चौकीदार—"चोरी होते हमने नहीं देखी।"
सूरदास—"हम इन दोनों लड़कों को पकड़े थे कि नहीं?"
चौकीदार—"हाँ, पकड़े तो थे, पर चोरी होते नहीं देखी।"
सूरदास—"दारोगाजी, अभी सहादत मिली कि और दूँ? यहाँ नंगे-लुच्चे नहीं बसते, भलेमानसों ही की बस्ती है। कहिए, बजरंगी से कहला दूँ; कहिए, खुद घीसू से कहला दूंँ। कोई झूठी बात न कहेगा। मुरौवत-मुरौवत की जगह है, मुहब्बत-मुहब्बत की जगह है। मुरौवत और मुहब्बत के पीछे कोई अपना परलोक न बिगाड़ेगा।"
बजरंगी ने देखा, अब लड़के की जान नहीं बचती, तो अपना ईमान क्यों बिगाड़े, दारोगा के सामने आकर खड़ा हो गया और बोला—"दारोगाजी, सूरे जो बात कहते हैं, वह ठीक है। जिसने जैसो करनी की है, वैसी भोगे। हम क्यों अपनी आकबत बिगाड़ें। लड़का ऐसा नालायक न होता, तो आज मुँह में कालिख क्यों लगती? जब उसका चलन ही बिगड़ गया, तो मैं कहाँ तक बचाऊँगा। सजा भोगेगा, तो आप आँखें खुलेंगी।”
हवा बदल गई। एक क्षण में साक्षियों का तांता बँध गया। दोनों अभियुक्त हिरासत में ले लिये गये। मुकदमा चला, तीन-तीन महीने की सजा हो गई। बजरंगी और जगधर, दोनों सूरदास के भक्त थे। नायकराम का यह काम था कि सब किसी से सूरदास का गुन गाया करे। अब ये तीनों उसके दुश्मन हो गये। दो बार पहले भी वह अपने मुहल्ले का द्रोही बन चुका था, पर उन दोनों अवसरों पर किसी को उसकी जात से इतना आगात न पहुंचा था, अबकी तो उसने घोर अपराध किया था। जमुनी जब सूरदास को देखती, तो सौ काम छोड़कर उसे कोसती। सुभागी को घर से निकलना मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि मिठुआ ने भी साथ छोड़ दिया। अब वह रात को भी स्टेशन पर ही रह जाता। अपने साथियों की दशा ने उसकी आँखें खोल दी। नायकराम तो इतने बिगड़े कि सूरदास के द्वार का रास्ता ही छोड़ दिया, चक्कर खाकर आते-जाता बस, उसके संबंधियों में ले-देके एक भैरो रह गया। हाँ, कभी-कभी दूसरों की निगाह बचा कर ठाकुरदीन कुशल-समाचार पूछ जाता। और तो और, दयागिर भी उससे कन्नी काटने लगे कि कहीं लोग उसका मित्र समझकर मेरी दक्षिणा-भिक्षा न बन्द कर दें।सत्य के मित्र कम होते हैं, शत्रुओं से कहीं कम।
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