विनय-"अच्छा, बताओ, इसमें क्या होगा?"
सोफिया-"रुपये तो होंगे नहीं, और चाहे जो हो। वह गरीब रुपये कहाँ पायेगा? वहाँ होटल का खर्च ही मुश्किल से दे पाता होगा।"
विनय--"और मैं कहता हूँ कि रुपयों के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।"
इंद्रदत्त-"कभी नहीं। कोई नई रचना होगी।"
विनय-"तो रजिस्ट्री कराने की क्या जरूरत थी?"
इंद्रदत्त-"रुपये होते, तो बीमा न कराया होता?"
विनय-"मैं कहता हूँ, रुपये हैं, चाहे शर्त बद लो।"
इंद्रदत्त-"मेरे पास कुल पाँच रुपये हैं, पाँच-पाँच की बाजी है।"
विनय-"यह नहीं। अगर इसमें रुपये हों, तो मैं तुम्हारी गरदन पर सवार होकर यहाँ से कमरे के उस सिरे तक जाऊँगा। न हुए, तो तुम मेरी गरदन पर सवार होना। बोलो?"
इंद्रदत्त-"मंजूर है, खोलो लिफाफा।"
लिफाफा खोला गया, तो चेक निकला। पूरे दस हजार का। लंदन बैंक के नाम। विनय उछल पड़े। बोले-“मैं कहता न था! यहाँ सामुद्रिक विद्या पढ़े हैं। आइए, लाइए गरदन।"
इंद्रदत्त-"ठहरो-ठहरो, गरदन तोड़के रख दोगे क्या! जरा खत तो पढ़ो, क्या लिखा है, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं ? लगे सवारी गाँठने।"
विनय-"जी नहीं, यह नहीं होने का। आपको सवारी देनी होगी। गरदन टूटे या रहे, इसका मैं जिम्मेदार नहीं। कुछ दुबले-पतले तो हो नहीं, खासे देव तो बने हुए हो।
इंद्रदत्त-"भई, आज मंगल के दिन नजर न लगाओ। कुल दो मन पैंतीस सेर तो रह गया हूँ। राजपूताना जाने के पहले तीन मन से ज्यादा था।"
विनय-"खैर, देर न कीजिए, गरदन झुकाकर खड़े हो जाइए।"
इंद्रदत्त-"सोफिया, मेरी रक्षा करो; तुम्हीं ने पहले कहा था, इसमें रुपये न होंगे। वही सुनकर मैंने भी कह दिया था।"
होफिया-मैं तुम्हारे झगड़ों में नहीं पड़ती। तुम जानो, वह जाने।" यह कहकर उसने खत पढ़ना शुरू किया-
"प्रिय बंधुवर, मैं नहीं जानता कि मैं यह पत्र किसे लिख रहा हूँ। कुछ खबर नहीं कि आजकल व्यवस्थापक कौन है। मगर सेवक-दल से मुझे अब भी वही प्रेम है, जो पहले था। उसको सेवा करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। आप मेरा कुशल-समाचार जानने के लिए उत्सुक होंगे। मैं पूना ही में था कि वहाँ के गवर्नर ने मुझे मुलाकात करने को बुलाया। उनसे देर तक साहित्य-चर्चा होती रही। एक ही मर्मज्ञ हैं। हमारे देश में ऐसे रसिक कम निकलेंगे। विनय (उसका कुछ हाल नहीं मालूम हुआ) के