पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४८६

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रंगभूमि


कर लिये जायेंगे और वह जबरदस्ती घर से निकाल दिया जायगा। अगर कोई रोक-टोक करेगा, तो पुलिस उसका चालान करेगी, उसको सजा हो जायगी। सरकार तुम लोगों को बेवजह तकलीफ नहीं दे रही है, उसको इस जमीन की सख्त जरूरत है। मैं सिर्फ सरकारी हुक्म की तामील कर रहा हूँ।"

गाँववालों को पहले ही इसकी टोह मिल चुकी थी, किंतु इस खयाल से मन को बोध दे रहे थे कि कौन जाने, खबर ठीक है या नहीं। ज्यों-ज्यों विलंब होता था, उनकी आलस्य-प्रिय आत्माएँ निश्चित होती जाती थीं। किसी को आशा थी कि हाकिमों से कह-सुनकर अपना घर बचा लूँगा, कोई कुछ दे-दिलाकर अपनी रक्षा करने की फिक कर रहा था, कोई उज्रदारी करने का निश्चय किये हुए था, कोई यह सोचकर शांत बैठा हुआ था कि न जाने क्या होगा, पहले से क्यों अपनी जान हलकान करें, जब सिर पर पडेगी, तब देखी जायगी। तिस पर भी आज जो लोगों ने सहसा यह हुक्म सुना, तो मानों वज्राघात हो गया। सब-के-सब साथ हाथ बाँधकर राजा साहब के सामने खड़े हो गये और कहने लगे-'"सरकार, यहाँ रहते हमारी कितनी पीढ़ियाँ गुजर गई, अब सरकार हमको निकाल देगी, तो कहाँ जायँगे? दो-चार आदमी हों, तो कहीं घुस पड़ें, मुहल्ले-का-मुहल्ला उजड़कर कहाँ जायगा? सरकार जैसे हमें निकालती है, वैसे कहों ठिकाना भी बता दे।"

राजा साहब बोले-"मुझे स्वयं इस बात का बड़ा दुःख है, और मैंने तुम्हारी ओर से सरकार की सेवा में उज्र भी किया था; मगर सरकार कहती है, इस जमीन के बगैर हमारा काम नहीं चल सकता। मुझे तुम्हारे साथ सच्ची सहानुभूति है, पर मजबूर हूँ, कुछ नहीं कर सकता, सरकार का हुक्म है, मानना पड़ेगा।"

इसका जवाब देने कि किसी को हिम्मत न पड़ती थी। लोग एक दूसरे को कुहनियों से ठेलते थे कि आगे बढ़कर पूछो, मुआवजा किस हिसाब से मिलेगा; पर किसी के कदम न बढ़ते थे। नायकराम यों तो बहुत चलते हुए आदमी थे, पर इस अवसर पर वह भी मौन साधे हुए खड़े थे; वह राजा साहब से कुछ कहना-सुनना व्यर्थ समझकर तखमीने के अफसर से तख मीने की दर में कुछ बेशी करा लेने की युक्त सोच रहे थे। कुछ दे-दिलाकर उनसे काम निकलना ज्यादा सरल जान पड़ता था। इस विपत्ति में सभी को सरदास की याद आती थी। वह होता, तो जरूर हमारी ओर से अरज-बिनतो करता, इतना गुरदा और किसी का नहीं हो सकता, कई आदमी लपके हुए सूरदास पास गये और उससे यह समाचार कहा।

सरदास ने कहा—"और सब लोग तो हैं ही, मैं चलकर क्या कर लूँगा। नायकराम क्यों सामने नहीं आते? यों तो बहुत गरजते हैं, अब क्यों मुँह नहीं खुलता? मुहल्ले ही में रोब दिखाने को हैं?"

ठाकुरदीन—"सबकी देखी गई। सबके मुँह में दही जमा हुआ है। हाकिमों से बोलने को हिम्मत चाहिए, अकिल चाहिए।"