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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५१०

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रंगभूमि


संतान के लिए इस संपत्ति का सुरक्षित रहना परमावश्यक है। तुम्हारे लिए पहला उपाय जितना कठिन है, उतना ही कठिन मेरे लिए दूसरा उपाय है। तुम इस विषय में क्या निश्चय करते हो?”

विनय ने गर्वान्वित भाव से कहा-"मैं संपत्ति को अपने पाँव की बेड़ी नहीं बनाना चाहता। अगर संपत्ति हमारी है, तो उसके लिए किसी शर्त की जरूरत नहीं; अगर दूसरे की है, और आपका अधिकार उसकी कृपा के आधीन हैं, तो उसे संपत्ति नहीं समझता। सच्ची प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए संपत्ति की जरूरत नहीं, उसके लिए त्याग और सेवा काफी है।"

भरतसिंह-"बेटा, मैं इस समय तुम्हारे सामने संपत्ति को विवेचना नहीं कर रहा हूँ, उसे केवल क्रियात्मक दृष्टि से देखना चाहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी अंश में संपत्ति हमारी वास्तविक स्वाधीनता में बाधक होती है, किंतु इसका उज्ज्वल पक्ष भी तो है-जीविका की चिंताओं से निवृत्ति और आदर तथा सम्मान का वह स्थान, जिस पर पहुँचने के लिए असाधारण त्याग और सेवा की जरूरत होती है, मगर जो यहाँ बिना किसी परिश्रम के आप-ही-आप मिल जाता है। मैं तुमसे केवल इतना चाहता हूँ कि तुम इस संस्था से प्रत्यक्ष रूप से कोई संबन्ध न रखो, यों अप्रत्यक्ष रूप से उसकी जितनी सहायता करना चाहो, कर सकते हो। बस, अपने को कानून के पंजे से बचाये रहो।”

विनय-"अर्थात् कोई समाचार-पत्र भी पढ़े, तो छिपकर, किवाड़ बंद करके कि किसी को कानों-कान खबर न हो। जिस काम के लिए परदे की जरूरत है, चाहे उसका उद्देश्य कितना ही पवित्र क्यों न हो, वह अपमानजनक है। अधिक स्पष्ट शब्दों में मैं उसे चोरी कहने में भी कोई आपत्ति नहीं देखता। यह संशय और शंका से पूर्ण जीवन मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट गुणों का ह्रास कर देता है। मैं वचन और कर्म की इतनी स्वाधीनता अनिवार्य समझता हूँ, जो हमारे आत्मसम्मान की रक्षा करे। इस विषय में मैं अपने विचार इससे सष्ट शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता।"

कुँवर साहब ने विनय को जल-पूर्ण नेत्रों से देखा। उनमें कितनी उद्विग्नता भरी हुई थी! तब बोले- "मेरी खातिर से इतना मान जाओ।"

विनय-"आपके चरणों पर अपने को न्योछावर कर सकता हूँ, पर अपनी आत्मा की स्वाधीनता की हत्या नहीं कर सकता।"

विनय यह कहकर जाना ही चाहते थे कि कुँवर साहब ने पूछा-"तुम्हारे पास रुपये तो बिलकुल न होंगे?"

विनय-"मुझे रुपये की फिक्र नहीं।"

कुँवर-"मेरी खातिर से—यह लेते जाओ।"

उन्होंने नोटों का एक पुलिंदा विनय की तरफ बढ़ा दिया। विनय इनकार न कर सके। कुँवर साहब पर उन्हें दया आ रही थी। जब वह नोट लेकर कमरे से चले गये,