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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५४७

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रंंगभूमि


सूरदास का मुँह खोलकर पिला दी। तत्काल उसका असर दिखाई दिया। सूरदास के विवर्ण मुख-मंडल पर हलकी-हलकी सुरखी दौड़ गई। उसने आँखें खोल दी, इधर-उधर अनिमेप दृष्टि से देखकर हँसा और ग्रामोफोन की-सी कृत्रिम, बैठी हुई, नीरस आवाज से बोला-"बस बस, अब मुझे क्यों मारते हो? तुम जीते, मैं हारा। यह बाजी तुम्हारे हाथ रही, मुझसे खेलते नहीं बना। तुम मँजे हुए खिलाड़ी हो, दम नहीं उखड़ता, खिलाड़ियों को मिलाकर खेलते हो और तुम्हारा उत्साह भी खूब है। हमारा दम उखड़ जाता है, हॉफने लगते हैं और खिलाड़ियों को मिलाकर नहीं खेलते, आपस में झगड़ते हैं, गाली-गलौज, मार-पीट करते हैं, कोई किसी की नहीं मानता। तुम खेलने में निपुण हो, हम अनाड़ी हैं। बस, इतना ही फरक है। तालियाँ क्यों बजाते हो, यह तो जीतने-वालों का धरम नहीं? तुम्हारा धरम तो है हमारी पीठ ठोकना। हम हारे, तो क्या, मैदान से भागे तो नहीं, रोये तो नहीं, धाँधली तो नहीं की। फिर खेलेंगे, जरा दम ले लेने दो, हार-हारकर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक-न-एक दिन हमारी जीत होगी,जरूर होगी।'

डॉक्टर गंगुली इस अनर्गल कथन को आँखें बंद किये इस भाव से तन्मय होकर सुनते रहे, मानों ब्रह्म-वाक्य सुन रहे हों। तब भक्ति-पूर्ण भाव से बोले-“बड़ी विशाल आत्मा है। हमारे सारे पारस्परिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन की अत्यंत सुंदर विवे-चना कर दी, और थोड़े-से शब्दों में।”

सोफी ने सूरदास से कहा-"सूरदास, कुँवर साहब और रानीजी आई हुई हैं। कुछ कहना चाहते हो?"

सूरदास ने उन्माद-पूर्ण उत्सुकता से कहा- "हाँ-हाँ-हाँ, बहुत कुछ कहना है, कहाँ हैं? उनके चरणों की धूल मेरे माथे पर लगा दो, तर जाऊँ, नहीं-नहीं, मुझे उठाकर बैठा दो, खोल दो यह पट्टी, मैं खेल चुका, अब मुझे मरहम-पट्टी नहीं चाहिए। रानी कौन, विनयसिंह की माता न? कुँवर साहब उनके पिता न १ मुझे बैठा दो, उनके पैरों पर आँखें मलूंगा। मेरी आँखें खुल जायँगी। मेरे सिर पर हाथ रखकर असीस दो, माता, अब मेरी जीत होगी। अहो! वह, सामने विनयसिंह और इंद्रदत्त सिंहासन पर बैठे हुए मुझे बुला रहे हैं। उनके मुख पर कितना तेज है! मैं भी आता हूँ। यहाँ तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका, अब वहीं करूँगा। माता-पिता, भाई-बंद, सबको सूरदास का राम-राम, अब जाता हूँ। जो कुछ बना बिगड़ा हो, छमा करना।"

रानी जाह्नवी ने आगे बढ़कर, भक्ति-विह्वल दशा में, सूरदास के पैरों पर सिर रख दिया और फूट-फूट कर रोने लगीं। सूरदास के पैर अश्रु-जल से भीग गये। कुँवर साहब ने आँखों पर रूमाल डाल लिया और खड़े-खड़े रोने लगे।

सूरदास की मुख-श्री फिर मलीन हो गई। ओषधि का असर मिट गया। ओठ नीले पड़ गये। हाथ-पाँव ठंडे हो गये।

नायकराम गंगाजल लाने दौड़े। जगधर ने सूरदास के समीप जाकर जोर से कहा-