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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५४९

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रंगभूमि


कोन करता? मिठुआ ठीक उसी अवसर पर रोता हुआ आ पहुँचा। सूरदास ने जीते-जी जो न कर पाया था, मरकर किया!

इसी स्थान पर कई दिन पहले यही शोक-दृश्य दिखाई दिया था। अंतर केवल इतना था कि उस दिन लोगों के हृदय शोक से व्यथित थे, आज विजय-गर्व से परिपूर्ण, वह एक वीरात्मा की वीर मृत्यु थी, यह एक खिलाड़ी की अंतिम लीला। एक बार फिर सूर्य की किरणें चिता पर पड़ी, उनमें गर्व की आभा थी, मानों आकाश से विजय-गान के स्वर आ रहे हैं।

लौटते समय मि० क्लार्क ने राजा महेंद्रकुमार से कहा- 'मुझे इसका अफसोस है कि मेरे हाथों ऐसे अच्छे आदमी की हत्या हुई।"

राजा साहब ने कुतूहल से कहा- “सौभाग्य कहिए, दुर्भाग्य क्यों?

क्लार्क-"नहीं राजा साहब, दुर्भाग्य ही है। हमें आप-जैसे मनुष्यों से भय नहीं, भय ऐसे ही मनुष्यों से है, जो जनता के हृदय पर शासन कर सकते हैं। यह राज्य करने का प्रायश्चित्त है कि इस देश में हम ऐसे आदमियों का वध करते हैं, जिन्हें इँगलैंड में हम देव-तुल्य समझते।"

सोफिया इसी समय उनके पास से होकर निकली। यह वाक्य उसके कान में पड़ा। बोली-“काश ये शब्द आपके अंतःकरण से निकले होते!"

यह कहकर वह आगे बढ़ गई। मि० क्लार्क यह व्यंग्य सुनकर बौखला गये, जब्त न कर सके। घोड़ा बढ़ाकर बोले-“यह तुम्हारे उस अन्याय का फल है, जो तुमने मेरे साथ किया है।"

सोफी आगे बढ़ गई थी। ये शब्द उसके कान में न पड़े।

गगन-मण्डल के पथिक, जो मेघ के आवरण से बाहर निकल आये थे, एक-एक करके विदा हो रहे थे! शव के साथ जानेवाले भी एक-एक करके चले गये। पर सोफिया कहाँ जाती? इसी दुविधा में खड़ी थी कि इंदु मिल गई। सोफिया ने कहा-"इंदु, जरा ठहरो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंँगी।"