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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/६१

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रंगभूमि


और बड़ी निठुरता से उसके कान पकड़कर खींचने लगा। मिठुआ बिलबिला उठा। सूरदास अब तक दीन भाव से सिर झुकाये खड़ा था। मिठुआ का रोना सुनते ही उसकी त्योरियाँ बदल गई। चेहरा तमतमा उठा। सिर उठाकर फूटी हुई आँखों से ताकता हुआ बोला-"भैरो, भला चाहते हो, तो उसे छोड़ दो, नहीं तो ठीक न होगा। उसने तुम्हें कौन-सी ऐसी गोली मार दी थी कि उसकी जान लिये लेते हो। क्या समझते हो किउसके सिर पर कोई है ही नहीं! जब तक मैं जीता हूँ, कोई उसे तिरछी निगाह से नहीं देख सकता। दिलावरी तो जब देखता कि किसी बड़े आदमी से हाथ मिलाते। इस बालक को पीट लिया, तो कौन-सी बड़ी बहादुरी दिखाई!"

भैरो—"मार को इतनी अखर है, तो इसे रोकते क्यों नहीं? हमको चिढ़ायेगा, तो हम पीटेंगे-एक बार नहीं, हजार बार; तुमको जो करना हो, कर लो।" जगधर-"लड़के को डाँटना तो दूर, ऊपर से और सह देते हो। तुम्हारा दुलारा होगा, दूसरे क्यों............"

सूरदास"चुप भी रहो, आये हो वहाँ से न्याय करने। लड़कों को तो यह बान ही होतो है; पर कोई उन्हें मार नहीं डालता। तुम्हीं लोगों को अगर किसी दूसरे लड़के ने 'चिढ़ाया होता, तो मुँह तक न खोलते। देखता तो हूँ; जिधर से निकलते हो, लड़के तालियाँ बजाकर चिढ़ाते हैं, पर आँखें बंद किये अपनी राह चले जाते हो। जानते हो कि जिन लड़कों के माँ-बाप हैं, उन्हें मारेंगे, तो वे आँखें निकाल लेंगे। केले के लिए ठीकरा भी तेज होता है।"

भैरो—"दूसरे लड़कों की और उसकी बराबरी है? दरोगाजी की गालियाँ खाते हैं, तो क्या डोमड़ों की गालियाँ भी खायें? अभी तो दो ही तमाचे लगाये हैं, फिर चिढ़ाये, ता उठाकर पटक दूँगा, मरे या जिये।"

सूरदास—(मिठू का हाथ पकड़कर) "मिठुआ, चिढ़ा तो, देखूँ, यह क्या करते हैं। आज जो कुछ होना होगा, यहीं हो जायगा।"

लेकिन मिठुआ के गालों में अभी तक जलन हो रही थी, मुँह भी सूज गया था, सिसकियाँ बंद न होती थीं। भैरो का रौद्र रूप देखा, तो रहे-सहे होश भी उड़ गये। जब बहुत बढ़ावे देने पर भी उसका मुँह न खुला, तो सूरदास ने झुंझलाकर कहा-"अच्छा, मैं ही चिढ़ाता हूँ, देखूँ मेरा क्या बना लेते हो!"

यह कहकर उसने लाठी मजबूत पकड़ ली, और बार-बार उसी पद की रट लगाने लगा, मानों कोई बालक अपना सबक याद कर रहा हो-

भैरो, भैरो, ताड़ी बेच,
या बीबी की साड़ी बेच।

एक ही साँस में उसने कई बार यही रट लगाई। भैरो कहाँ तो क्रोध से उन्मत्त हो रहा था, कहाँ सूरदास का यह बाल-हठ देखकर हँस पड़ा। और लोग भी हँसने लगे। अब सूरदास को ज्ञात हुआ कि मैं कितना दीन और बेकस हूँ। मेरे क्रोध का यह सम्मान