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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/७०

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रंगभूमि


का जलापा नाम को न था। बहनों का-सा प्रेम था। बोली—“और क्या, भला ऐसी बातें मरदों से की जाती हैं?”

बजरंगी—“माताजी, मैं गँवार आदमी, इसका हाल क्या जानूँ। अब आप ही तय करा दीजिए। गरीब आदमी हूँ, बाल-बच्चे जियेंगे।"

जैनब—“सच-सच कहना, यह मुआमला दब जाय, तो कहाँ तक दोगे?"

बजरंगी—"बेगम साहब, ५०) तक देने को तैयार हूँ।"

जैनब—"तुम भी गजब करते हो। ५०) ही में इतना बड़ा काम निकालना चाहते हो?”

रकिया—(धीरे से ) "वहन, कहीं बिदक न जाय।”

बजरंगी—"क्या करूँ, बेगम साहब, गरीब आदमी हूँ। लड़की को दूध-दही जो कुछ हुकुम होगा, खिलाता रहूँगा; लेकिन नगद तो इससे ज्यादा मेरा किया न होगा।"

रकिया—"अच्छा, तो रुपयों का इंतजाम करो। खुदा ने चाहा, तो सब तय हो जायगा।"

जैनव—(धीरे से) "रकिया, तुम्हारी जल्दबाजी से मैं आजिज हूँ।"

बजरंगी—"मांजी, यह काम हो गया, तो सारा मुहल्ला आपका जस गायगा।"

जैनब—"मगर तुम तो ५०) से आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते। इतने तो साहब ही दे देंगे, फिर गुनाह बेलज्जत क्यों किया जाय।”

बजरंगी—माँजी, आपसे बाहर थोड़े ही हूँ। दस-पाँच रुपये और जुटा दूँगा।"

जैनव--"तो कब तक रुपये आ जायँगे?"

बजरंगी—"बस, दो दिन की मोहन्त मिल जाय। तब तक मुंसीजी से कह दीजिए, साहब से कहें सुनें।”

जैनव---"वाह महतो, तुम तो बड़े होशियार निकले। सेंत ही में काम निकालना चाहते हो। पहले रुपये लाओ, फिर तुम्हारा काम न हो, तो हमारा जिम्मा।”

बजरंगी दूसरे दिन आने का वादा करके खुश-खुश चला गया, तो जैनब ने रकिया से कहा—"तुम बेसब्र हो जाती हो। अभी चमारों से दो पैसे फी खाल लेने पर तैयार हो गई। मैं दो आने लेती, और वे खुशी से देते। यही अहीर पूरे सौ गिनकर जाता। देखत्री से गरजमंद चौकन्ना हो जाता है। समझता है, शायद हमें बेवकूफ बना रही है। जितनी ही देर लगाओ, जितनी बेरुखी से काम लो, उतना ही एतबार बढ़ता है।"

रकिया—"क्या करूँ बहन, मैं डरती हूँ कि कहीं बहुत सख्ती से निशाना खता न कर जाय।”

जैनव—"वह अहीर रुपये जरूर लायेगा। ताहिर को आज ही से भरना शुरू कर दो। बस, अजाब का खौफ दिलाना चाहिए। उन्हें हत्थे चढ़ाने का यही ढंग है।"

रकिया—"और कहीं साहब न मानें, तो?"

जैनव—"तो कौन हमारे ऊपर कोई नालिश करने जाता है!"