कहा—"मेरे भी तो बाल-बच्चे हैं, जब मैं नहीं डरता, तो आप क्यों डरते हैं? क्या आप समझते हैं कि मुझे अपने बाल-बच्चे प्यारे नहीं, या मैं खुदा से नहीं डरता?"
ताहिर—"आप साहबे-एकबाल हैं, आपको अजाब का खौफ नहीं। एकबालवालों से अजाब भी काँपता है। खुदा का कहर गरीबों ही पर गिरता है।"
जॉन सेवक—"इस नये धर्म-सिद्धांत के जन्मदाता शायद आप ही होंगे; क्योंकि मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि ऐश्वर्य से ईश्वरीय कोप भी डरता है। बल्कि हमारे धर्म-ग्रंथों में तो धनिकों के लिए स्वर्ग का द्वार ही बंद कर दिया गया है।"
ताहिर—“हुजूर, मुझे इस झगड़े से दूर रखें, तो अच्छा हो।”
जॉन सेवक—"आज आपको इस झगड़े से दूर रखूँ, कल आपको यह शंका हो कि पशु-हत्या से खुदा नाराज होता है, आप मुझे खालों की खरीद से दूर रखें, तो में आपको किन-किन बातों से दूर रखूँगा, और कहाँ-कहाँ ईश्वर के कोप से आपकी रक्षा करूँगा? इससे तो कहीं अच्छा यही है कि आपको अपने ही से दूर रखूँ। मेरे यहाँ रहकर आपको ईश्वरीय कोप का सामना करना पड़ेगा।"
मिसेज सेवक—"जब आपको ईश्वरीय कोप का इतना भय है, तो आपसे हमारे यहाँ काम नहीं हो सकता।"
ताहिर—"मुझे हुजूर की खिदमत से इनकार थोड़े ही है, मैं तो सिर्फ.........."
मिसेज सेवक —"आपको हमारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना पड़ेगा, चाहे उसले आपका खुदा खुश हो या नाखुश। हम अपने कामों में आपके खुदा को हस्तक्षेप न करने देंगे।"
ताहिरअली हताश हो गये। मन को समझाने लगे-ईश्वर दयालु है, क्या बढ्दे खता नहीं कि मैं कैसी होड़ियों में जकड़ा हुआ हूँ। मेरा इसमें क्या वश है। अगर स्वामी की आनाओं को न मानें, तो कुटुंब का पालन क्योंकर हो। बरसों मारे-मारे किरने के बाद तो यह ठिकाने की नौकरी हाथ आई है। इसे छोड़ दूँ, तो फिर उमी तरह ठोकरें खाली पड़ेंगी। अभी कुछ और नहीं है, तो रोटी-दाल का सहारा तो है। गृह-चिंता आत्मचिंतन की घातिका है।
ताहिरअली को निरुत्तर होना पड़ा। वेचारे अपनी स्त्री के सारे गहने बेचकर खा चुके थे। अब एक छल्ला भी न था। माहिरअली अँगरेजी पढ़ता था। उसके लिए अच्छे कपड़े बनवाने पड़ते, प्रतिमास फीस देनी पड़ती। जाविरअली और जाहिरअली उर्दू-मदरसे में पढ़ते थे; किंतु उनकी माता नित्य जान खाया करती थीं कि इन्हें भी अँगरेजी-मदरसे में दाखिल करा दो, उर्दू पढ़ाकर क्या चारासगरी करानी है? अँगरेजी थोड़ी भी आ जायगी, तो किसी-न-किसी दस्तर में घुम ही जायँगे। भाइयों के लालन- पालन पर उनकी आवश्यकताएँ ठोकर खाती रहती थीं। पाजामे में इतने पैबंद लग जाते कि कपड़े का यथार्थ रूप छिप जाता था। नये जूते तो शायद इन पाँच बरसों में उन्हें नसीब ही नहीं हुए। माहिरअली के पुराने जूतों पर संतोष करना पड़ता था।