पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
-९६-
 

है। रंग भी महँगा है। इस कारण केवल दो कपड़े रंगने का हुक्म मिला है।"

पत्नी बोली---"अच्छा, दो ही रंगवा लो।"

सदस्य ने दो इकलाइयाँ लाकर दीं। रंगरेज बोला---"एक मर्दाना कपड़ा और एक जनाना दोनों एक तरह के नहीं रँगे जावेंगे।"

"और जो मर्दाना कपड़ा न रंँगना चाहे?"

"तो केवल एक जनाना रंँगवा लें।"

सदस्य महोदय ने पुनः पत्नी से परामर्श किया। बोले--"कोई फालतू कपड़ा पड़ा हो तो दे दो। उसे गेरुपा रंँगालें।"

"गेरुआ, यह क्यों?" पत्नी ने भ्रकुटी चढ़ाकर पूछा।

"तो मैं और क्या रँगऊँ गेरुआ कपड़ा रंगा घरा रहेगा। कभी सन्यास वन्यास लेना पड़ा तो काम दे जायगा।"

यह सुनते ही पत्नी आग हो गई। बोली---"हमें नहीं रँगाना है। वाह, अच्छा असुगुन मनाने आया।"

"अच्छा, जाने दो। तुम अपनी एक साड़ी रंगवा लो।"

"हम कुछ नहीं रँगावेंगे। इससे कह दो, सीधी तरह चला जाय। नहीं तो चेलों से खबर लूंगी।"

रंगरेज ने भी यह बात सुनी। वह तुरन्त ही वहाँ से नौ-दो ग्यारह हुमा।

( ३ )

एक दूसरे सदस्य के यहांँ पहुंँचकर उनसे भी दो कपड़े रंगाने लिए कहा। सदस्य के बृद्ध पिता ने जो सुना कि रंगरेज हाजिर है और मुफ्त कपड़े रंगने को तैयार है तो पुत्र से बोले---"बेटा, हमारा साफा रंगा लो।"

पुत्र ने साफा लाकर रंगरेज को दिया। रंगरेज ने देखा---पूरे बारह गज का साफा है।

रंगरेज बोला----"इसमें तो बहुत देर लगेगी। रंग भी बहुत खर्च होगा। कोई छोटा कपड़ा लाइए।"