पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/६२

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"जी नहीं। मैं तो परदेशी हूँ।"

"यहाँ रिश्तेदारी होगी।"

“जी नहीं। मैं कथा-वाचक हूं।"

"अच्छा! आपकी कथा कहाँ होती है?"

"यहीं तो होती है उस पार।"

"रामायण की कथा?"

"जी हां!"

"अच्छा! आप ही कथा कहते हैं मैं आज आपकी कथा सुनने ही आया हूँ।"

"अच्छा! यह मेरा सौभाग्य है।"

"आपकी बड़ी प्रशंसा सुनो इससे उत्सुकता उत्पन्न हुई।"

"हाँ लोग प्रशंसा करते हैं। परन्तु यह उनकी दया है। मुझ में तो कोई ऐसी बात नहीं है। मैं तो केवल रामगुणानुवाद करता हूँ।"

"खैर आपको यही कहना शोभा देता है।"

"आपने बड़ी कृपा की। आज कथा भी बड़ी अच्छी है।"

"आज कौन प्रसंग है?"

"आज फुलवारी का प्रसंग है।"

"वाह! बड़ा सुन्दर है।"

इसी प्रकार की बातें करते हुए दोनों इस पार आये। कथा-वाचक महोदय तो अन्यत्र चले गये । दद्दू पुनः उसी गङ्गापुत्र के तख्त पर आकर बैठ गये।

"अब स्नान कर डालो दद्दू।" गङ्गापुत्र बोला।

"हाँ"

दद्दू इस समय विचार-मग्न थे। कथा-वाचक के साथ वह तरुणी , कौन थी? दोनों अकेले रेती में क्यों गये थे? वृद्धा कौन है ? इत्यादि प्रश्न उनके मन में उठ रहे थे। यह सोचते-सोचते दद्दू ने स्नान किया और पुनः आ तख्त पर बैठ गये।