पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१३९

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रघुवंश ।

"देख,यह मगध-देश का महा पराक्रमी परन्तप नामक राजा है। 'पर' शत्रु को कहते हैं । अपने शत्रुओं पर यह बेहद तपता है उन्हें बहुत अधिक सन्ताप पहुँचाता है-इसी कारण,इसका‘परन्तप' नाम सचमुच ही सार्थक है। शरण आये हुओं की रक्षा करना,यह अपना धर्म समझता है-शरणार्थियों को शरण देने में कभी आना- कानी नहीं करता। अपनी प्रजा को भी यह सदा सन्तुष्ट रखता है। इससे इसने संसार में बड़ा नाम पाया है। इसकी कीर्ति सर्वत्र फैली हुई है। यों तो इस जगत में सैकड़ों नहीं, हज़ारों राजा हैं, परन्तु यह पृथ्वी केवल इसी को यथार्थ राजा समझती है। 'राजन्वती' नाम इसे इसी राजा की बदौलत मिला है। रात को आकाश में,न मालूम कितने नक्षत्र,तारे और ग्रह उदित हुए देख पड़ते है; परन्तु उनके होते हुए भी जब तक चन्द्रमा का उदय नहीं होता तब तक कहीं चाँदनी नहीं दिखाई देती। एक मात्र चन्द्रमा ही की बदौलत रात को,'चाँदनी वाली' संज्ञा प्राप्त हुई है। भूमण्डल के अन्यान्य राजा नक्षत्रों, तारों और ग्रहों के सदृश भले ही इधर उधर चमकते रहें; पर उन सब में अकेला परन्तप ही चन्द्रमा की बराबरी कर सकता है । इस राजा को यज्ञानुष्ठान से बड़ा प्रेम है। एक न एक यज्ञ इसके यहाँ सदा हुआ ही करता है, और, इन यज्ञों में अपना भाग लेने के लिए यह इन्द्र को सदा बुलाया ही करता है। इस कारण बेचारी इन्द्राणी कोचिरकाल तक पति-वियोग की व्यथा सहन करनी पड़ती है। उसका मुँह पीला पड़ जाता है, बालों में मन्दार के फूलों का गूंथा जाना बन्द हो जाता है, और कंघी-चोटी न करने से उसकी रूखी अलकें पाण्डु-वर्ण कपोलों पर पड़ो लटका करती हैं। फिर भी इस राजा की यज्ञ-क्रिया बन्द नहीं होती;और, इन्द्राणी को वियोगिनी बना कर इन्द्र को इसके यज्ञों में जाना ही पड़ता है। यदि इस नृप-श्रेष्ठ के साथ विवाह करने की तेरी इच्छा हो तो उसे पूर्ण कर ले, और इसकी पुष्पपुर (पटना) नामक राजधानी में प्रवेश करते समय, इसके महलों की खिड़कियों मे बैठी हुई पुरवासिनी स्त्रियों के नेत्रों को,अपने दर्शनों से, आनन्दित कर।"

सुनन्दा के मुख से मगधेश्वर की ऐसी प्रशंसा सुन कर कृशाङ्गी इन्दुमती ने आँख उठा कर एक बार उसकी तरफ देखा तो ज़रूर, पर बोली