शाल्मली नामक लाठी की तरह, चलाई। दैत्यों को इस अस्त्र से बड़ो बड़ी
आशाये थीं। परन्तु रथ तक पहुँचने के पहले ही रामचन्द्र ने इसे अपने
अर्द्धचन्द्र बाणों से, केले की तरह, सहज ही में, काट गिराया। फिर
उन्होंने रावण पर छोड़ने के लिए कभी निष्फल न जाने वाला ब्रह्मास्त्र,
अपने धनुष पर रक्खा। धनुर्विद्या में रामचन्द्र सचमुच ही अद्वितीय थे।
उन्होंने अपने धनुष पर इस अस्त्र की योजना क्या की, प्रियतमा जानकी
के कारण उत्पन्न हुए शोकरूपी काँटे को अपने हृदय से निकाल
फेंकने की ओषधि ही का उन्होंने प्रयोग सा किया। धनुष से छूटने पर,
आकाश में, उस चमचमाते हुए अस्त्र का मुख, दस भागों में, विभक्त हो गया। उस समय वह शेष-नाग के महा विकराल फनों के मण्डल के समान
दिखाई दिया। मन्त्र पढ़ कर छोड़े गये उस ब्रह्मास्त्र ने, पलक मारते मारते,
रावण के दसों सिर काट कर ज़मीन पर गिरा दिये। उसने यह काम
इतनी फुर्ती से कर दिखाया कि रावण को सिर काटे जाने की व्यथा तक
न सहनी पड़ी। उसे मालूम ही न हुआ कि कब उसके सिर कट कर
गिर पड़े। लहरों के कारण अलग अलग दिखाई देने वाली, प्रातःकालीन
सूर्य की प्रतिमा, जल में जैसी मालूम होती है, रावण के शरीर से कट
कर गिरे हुए मुण्डों की माला भी, उस समय, वैसी ही मालूम हुई।
रावण के कटे हुए सिर ज़मीन पर पड़े देख कर भी देवताओं को उसके मरने पर पूरा पूरा विश्वास न हुआ। वे डरे कि ऐसा न हो जो ये सिर फिर जुड़ जायँ।
धीरे धीरे देवताओं का सन्देह दूर हो गया। उन्हें विश्वास हो गया कि रावण अब जीता नहीं। अतएव, उन्होंने रावणारि रामचन्द्र के शीश पर-उस शीश पर जिस पर, राज्याभिषेक होने पर, मुकुट रखने का समय समीप आ गया था-बड़े ही सुगन्धित फूलों की वर्षा की। महा- मनोहारी और सुगन्धिपूर्ण फूल बरसते देख भौरों ने दिकपालों के हाथियाँ की कनपटियाँ छोड़ दीं। अपने पंखों पर मद चिपकाये हुए वे उन फूलों के पीछे पीछे दौड़े। फूलों की सुगन्धि से खिंच कर, वे भी, फूलों के पीछे ही, आसमान से रामचन्द्र के शीश पर आ पहुँचे।
देवताओं का काम हो चुका देख रामचन्द्र ने धनुष से तुरन्त ही