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रघुवंश।

कारण उनकी डाढ़ियों के बाल बेतरह बढ़ रहे थे। अतएव, उनके चेहरे कुछ के कुछ हो गये थे। वे बढ़ी हुई बरोहियों या जटाओं वाले बरगद के वृक्षों की तरह मालूम हो रहे थे । भरत और रामचन्द्र का मिलाप हो चुकने पर, मन्त्रियों ने बड़े ही भक्ति-भाव से रामचन्द्र को प्रणाम किया। रामचन्द्रजी ने प्रसन्नतापूर्ण दृष्टि से उनकी तरफ़ देखा और मीठी वाणी से कुशल-समाचार पूछ कर उन पर अपना अनुग्रह प्रकट किया।

इसके बाद, रामचन्द्रजी ने सुग्रीव और विभीषण का परिचय भरत से कराया। वे बोलेः -"भाई, ये रीछों और बन्दरों के राजा सुग्रीव हैं। इन्होंने विपत्ति में मेरा साथ दिया था । और,ये पुलस्त्यपुत्र विभीषण हैं। युद्ध में सबसे आगे इन्हों का हाथ उठा था। पहला प्रहार सदा इन्हींने किया था।" रामचन्द्र के मुख से सुग्रीव और विभीषण की इतनी बड़ाई सुन कर, भरत ने लक्ष्मण को तो छोड़ दिया; इन्हीं दोनों को उन्होंने बड़े आदर से प्रणाम किया।तदनन्तर, वे सुमित्रा-नन्दन श्रीलक्ष्मण से मिले और उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। लक्ष्मण ने भरत को उठा कर बलपूर्वक अपने हृदय से लगा लिया। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे मेघनाद के प्रहारों के घाव लगने के कारण कर्कश हुए अपने वक्षः-स्थल से लक्ष्मणजी भरत की भुजाओं के बीचवाले भाग को पीड़ित सा कर रहे हैं।

रामचन्द्र की आज्ञा से, बन्दरों की सेना के स्वामी, मनुष्य का रूप धारण करके, बड़े बड़े हाथियों पर सवार हो गये । हाथी थे मतवाले । उनके शरीर से, कई जगह, मद की धारा झर रही थी । अतएव गजारोही सेनापतियों को झरने झरते हुए पहाड़ों पर चढ़ने का सा आनन्द आया।

निशाचरों के राजा विभीषण भी, दशरथ-नन्दन रामचन्द्र की आज्ञा से, अपने साथियों सहित रथों पर सवार हुए। रामचन्द्र के रथों को देख कर विभीषण को बड़ा आश्चर्य हुआ । विभीषण के रथ माया से रचे गये थे और रामचन्द्र के रथ कारीगरों के बनाये हुए थे । परन्तु रामचन्द्र के रथों की शोभा और सुन्दरता विभीषण के रथों से कहीं बढ़कर थी।

तदनन्तर, अपने छोटे भाई लक्ष्मण और भरत को साथ लेकर, रामचन्द्रजी लहराती हुई पताका से शोभित और प्रारोही की इच्छा के अनुसार