सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१४
रघुवंश ।

हैं। लक्ष्मण और शत्रुघ्न, दोनों भाई, उन पर मन्द मन्द चमर कर रहे हैं। भरत, पीछे, उन पर छत्र धारण किये हुए खड़े हैं । उस समय देखनेवालों को वे अपने भाइयों सहित, साक्षात् साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों उपायों के समुदाय की तरह मालूम हुए।

रामचन्द्रजी के प्रवेश-समय में, अयोध्या के महलों के ऊपर छाये हुए कालागरु के धुर्वे की ध्वजा, वायु के झोंकों से टूट कर, इधर उधर फैल गई। उसे देख कर ऐसा मालूम हुआ जैसे वन से लौट कर रामचन्द्रजी ने अपनी पुरी की वेणी अपने हाथ से खोल दी हो। जब तक पति परदेश में रहता है तब तक पतिव्रता स्त्रियाँ कंघी-चोटी नहीं करतों; वे अपनी वेणी तक नहीं खोलतों । अपने स्वामी रामचन्द्र के वनवासी होने से अयोध्यापुरी भी, पतिव्रता स्त्री की तरह, मानों अब तक वियोगिनी थी। इसी से रामचन्द्र ने उसकी वेणी खोल कर उसके वियोगीपन का चिह्न दूर कर दिया।

जिस समय कीरथ नाम के एक छोटे से सुसज्जित रथ पर सवार हुई सीताजी ने पुरी में प्रवेश किया उस समय अयोध्या की स्त्रियों ने, अपने अपने मकानों की खिड़कियों से, दोनों हाथ जोड़ जोड़ कर, उन्हें इस तरह खुल कर प्रणाम किया कि उनके हाथों की अँजुलियाँ बाहर वालों को भी साफ दिखाई दी। सीताजी का उस समय का वेश बड़ा ही सुन्दर था। उनकी दोनों सासुओं ने, अपने हाथ से उनका श्रृंगार करके, उन्हें अच्छे अच्छे कपड़े और गहने पहनाये थे । अनसूया का दिया हुआ उबटन उनके बदन पर लगा हुआ था । वह कान्तिमान उक्टन कभी खराब होनेबाला न था। उससे प्रभा का मण्डल निकल रहा था । सीताजी के चारों ओर फैले हुए उस प्रभा-मण्डल को देख कर यह मालूम होता था मानों रामचन्द्र ने उन्हें फिर आग के बीच में खड़ा करके अयोध्या को यह दिखाया है कि सीताजी सर्वथा शुद्ध हैं। अतएव, उनको ग्रहण करके मैंने कोई अनुचित काम नहीं किया।

रामचन्द्रजी मित्रों का सत्कार करना खूब जानते थे। सौहार्द के तो वे सागरही थे। विभीषण, सुग्रीव और जाम्बुवान आदि अपने मित्रों को, अच्छे अच्छे सजे हुए मकानों में ठहरा कर, और, उनके आराम का उत्तम प्रबन्ध करके वे.पिता के पूजाघर में गये। वहाँ पिता के तो दर्शन उन्हें हुए