जाने की आज्ञा दी । उस समय सीताजी ने स्वयं अपने हाथ से बहुमूल्य भेटें देकर उन्हें बिदा किया।
जिस पुष्पक विमान पर बैठ कर रामचन्द्रजी लङ्का से आये थे वह कुवेर का था। रावण उसे कुवेर से छीन लाया था। अतएव रावण के मारे जाने पर वह रामचन्द्र का हो गया था। अथवा यह कहना चाहिए कि रावण के प्राणों के साथ उसे भी रामचन्द्र ने ले लिया था। वह विमान क्या था आकाश का फूल था । आकाश में वह फूल के सदृश शोभा पाता था। रामचन्द्र ने उससे कहा- "जाव, तुम फिर कुवेर की सवारी का काम दो। जिस समय मैं तुम्हारी याद करूँ, आ जाना।"
इस प्रकार, अपने पिता की आज्ञा से चौदह वर्ष वनवास करने के अनन्तर, रामचन्द्रजी को अयोध्या का राज्य प्राप्त हुआ। राजा होने पर जिस तरह उन्होंने धर्म, अर्थ और काम के साथ, पक्षपात छोड़ कर, एक सा व्यवहार किया उसी तरह उन्होंने अपने तीनों छोटे भाइयों के साथ भी व्यवहार किया। सब को उन्होंने तुल्य समझा। अपने व्यवहार में उन्होंने ज़रा भी विषमता नहीं आने दी। माताओं के साथ भी उन्होंने एक ही सा व्यवहार किया। उसकी प्रीति सब पर समान होने के कारण किसी के भी आदर में उन्होंने न्यूनाधिकता नहीं होने दी। छः मुखों से दूध पी गई कृत्तिकाओं पर स्वामिकार्तिक के समान, तीनों माताओं पर रामचन्द्र ने एक सी वत्सलता प्रकट की।
रामचन्द्र ने अपनी प्रजा का पालन बहुत ही अच्छी तरह किया । लालच उनको छू तक न गया; इससे उनकी प्रजा धनाढ्य हो गई। विघ्नों से उत्पन्न हुए भय का नाश करने में उन्होंने सदा तत्परता दिखाई; इससे उनकी प्रजा धार्मिक हो गई-घर घर धर्मानुष्ठान होने लगे। नीति का अवलम्बन करके उन्होंने किसी को ज़रा भी सुमार्ग से न हटने दिया; इससे उनकी प्रजा उन्हें अपना पिता समझने लगी । प्रजा का दुख-दर्द दूर करके सबको उन्होंने सुखी कर दिया। इससे प्रजा उन्हें पुत्रवत् प्यार करने लगी। सारांश यह कि रामचन्द्र की प्रजा उन्हीं से धनवती, उन्हीं से क्रियावती, उन्हीं से पितृवती और उन्हीं से पुत्रवती हुई।
पुरवासियों का जो काम जिस समय करने को होता उसे रामचन्द्र