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पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२८८

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चौदहवाँ सर्ग।

उसके वालुका-पूर्ण तट पर, देवताओं की पूजा-अर्चा किया करना । इससे तुझे बहुत कुछ शान्ति मिलेगी और तेरे चित्त की उदासी- नता जाती रहेगी। तुझे वहाँ अकेली न रहना पड़ेगा। आश्रमों में अनेक मुनि-कन्याय भी हैं । वे तेरा मनोविनोद किया करेंगी। जिस ऋतु में जो फल-फूल होते हैं उन्हें वे वन से लाया करती हैं। विना जोते बोये उत्पन्न होने वाले अन्न भी वे पूजा के लिए लाती हैं । वे सब बड़ी ही मधुरभाषिणी और शीलवती हैं। उनके साथ रहने और उनसे बात-चीत करने से तुझे अवश्य ही शान्ति मिलेगी । मीठी मीठी बाते करके, तुझ पर पड़े हुए इस नये दुःख को वे बहुत कुछ कम कर देंगी। तेरा जी चाहे तो अपनी शक्ति के अनुसार तू आश्रम के छोटे छोटे पौधों को घड़ों से पानी दिया करना। इससे पुत्रोत्पत्ति के पहले ही तुझे यह मालूम हो जायगा कि सन्तान पर माता की कितनी ममता होती है । मेरी बातों को तू सच समझ । उनमें तुझे ज़रा भी सन्देह न करना चाहिए।"

दयार्दहृदय वाल्मीकि के इन आश्वासनपूर्ण वचनों को सुन कर सीता -जी ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की। मुनिवर के इस दयालुतादर्शक बरताव की उन्होंने बड़ी बड़ाई की और उन्हें बहुत धन्यवाद दिया। सायङ्काल वाल्मीकिजी उन्हें अपने आश्रम में ले आये । उस समय कितने ही हरिण, आश्रम की वेदी को चारों ओर से घेरे, बैठे हुए थे और जंगली पशु, वहाँ, शान्तभाव से आनन्दपूर्वक घूम रहे थे। आश्रम के प्रभाव से हिंसक जीव भी, अपनी हिंसक-वृत्ति छोड़ कर, एक दूसरे के साथ वहाँ मित्रवत्व्य वहार करते थे।

जिस समय सीताजी आश्रम में पहुँची उस समय वहाँ की तपखिनी स्त्रियाँ बहुत ही प्रसन्न हुई। अमावास्या का दिन जिस तरह, पितरों के द्वारा सारा सार खींच लिये गये चन्द्रमा की अन्तिम कला को, ओषधियों को सौंप देता है उसी तरह वाल्मीकिजी ने उस दीन-दुखिया और शोक-विह्वला सीता को उन तपस्विनियों के सुपुर्द कर दिया।

तपस्वियों की पत्नियों ने सीताजी को बड़े सादर-सत्कार से लिया । उन्होंने पूजा के उपरान्त, कुछ रात बीतने पर, उन्हें रहने के लिए एक पर्णशाला दी । उसमें उन्होंने इंगुदी के तेल का एक दीपक जला दिया और