पृष्ठ:रघुवंश.djvu/६५

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रघुवंश।

लगे रहते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं कि श्राद्ध में जो अन्न मैं उन्हें देता हूँ वह यदि सारा का सारा ही वे खा डालेंगे तो आगे उन्हें कहाँ से अन्न मिलेगा। अतएव, इसी में से थोड़ा थोड़ा संग्रह कर के आगे के लिए रख छोड़ना चाहिए । इसी तरह,तर्पण करते समय जब मैं पितरों को जलाञ्जलि देता हूँ तब उन्हें यह खयाल होता है कि हाय ! दिलीप की मृत्यु के अनन्तर यह जल हम लोगों के लिए सर्वथा दुर्लभ हो जायगा। यह सोचते समय उन्हें बड़ा दुःख होता है और वे दीर्घ तथा उष्णनिःश्वास छोड़ने लगते हैं । इस कारण मेरा दिया हुआ वह जल भी उष्ण हो जाता है और उन बेचारों को वही पीना पड़ता है।

"मेरी दशा इस समय उत्तर की तरफ़ प्रकाश-पूर्ण और दक्षिण की तरफ अन्धकार-पूर्ण लोकालोक पर्वत के समान हो रही है क्योंकि अनेक यज्ञ करने के कारण मेरी आत्मा तो पवित्र, अतएव तेजस्क है; परन्तु सन्तति न होने के कारण वह निस्तेज भी है । देवताओं का ऋण चुकाने के कारण तो मैं तेजस्वी हूँ; पर पितरों का ऋण न चुका सकने के कारण तेजोहीन हूँ। आप शायद यह कहेंगे कि तपस्या और दान आदि पुण्य-कार्य जो मैंने किये हैं उन्हीं से मुझे यथेष्ट सुख की प्राप्ति हो सकती है। सन्तति की इच्छा रखने से क्या लाभ ? परन्तु, बात यह है कि तपश्चरण और दानादि के पुण्य से परलोक ही मैं सुख प्राप्त होता है,पर विशुद्ध सन्तति की प्राप्ति से इस लोक और परलोक,दोनों,में सुख मिलता है। अतएव हे सर्व-समर्थ गुरुवर ! मुझे सन्तति-हीन देख कर क्या आपको दुःख नहीं होता ? आपने अपने आश्रम में जो वृक्ष लगाये हैं, और अपने ही हाथ से प्रेम-पूर्वक सींच कर जिन्हें आपने बड़ा किया है, उनमें यदि फूल-फल न लगे, तो क्या आपको दुःख न होगा ? सच समझिए,मेरी दशा,इस समय,ऐसे ही वृक्षों के सदृश हो रही है। हे भगवन् ! जिस हाथी के पैरों को कभी ज़ंजीर का स्पर्श नहीं हुआ वह यदि उसके द्वारा खम्भे से बाँध दिया जाय तो वह खम्भा उसके लिए जैसे अत्यन्त वेदनादायक होता है वैसे ही पितरों के ऋण से मुक्त न होने के कारण उत्पन्न हुआ मेरा दुःख मेरे लिए अत्यन्त असह्य हो रहा है। अतएव, इस पीड़ादायक दुःख से मुझे, जिस तरह हो