पाँचवाँ सर्ग।
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अज का जन्म और इन्दुमती के स्वयंवर में जाना।
राजा रघु के राज्य में वरतन्तु नाम के एक ऋषि थे। वे बड़े विद्वान् बड़े महात्मा और बड़े तपस्वी थे। उनका आश्रम एक वन में था। सैकड़ों ब्रह्मचारियों का वे पालन-पोषण भी करते थे और उन्हें पढ़ाते भी थे। उनमें कौत्स नाम का एक ब्रह्मचारी था। उसका विद्याध्ययन जब समाप्त हो गया तब महात्मा वरतन्तु ने उसे घर जाने की आज्ञा दी। उस समय कौत्स ने आचार्य्य वरतन्तु को गुरु-दक्षिणा देनी चाही। अतएव, दक्षिणा के लिए धन माँगने की इच्छा से, वह राजा रघु के पास आया। परन्तु, उस समय, राजा रघु महानिर्धन हो रहा था, क्योंकि विश्वजित् नामक यज्ञ में उसने अपनी सारी सम्पत्ति ख़र्च कर डाली थी। अतएव, उसके ख़ज़ाने में एक फूटी कौड़ी भी न थी। सोने और चाँदी के पात्रों की तो बात ही नहीं, पीतल के भी पात्र उसके पास न थे। पानी पीने और भोज्यपदार्थ रखने के लिए उसके पास मिट्टी ही के दो चार पात्र थे। वे पात्र यद्यपि चमकदार न थे, तथापि रघु का शरीर उसके अत्यन्त उज्ज्वल यश से ख़ूब चमक रहा था। शीलनिधान भी वह एक ही था। अतिथियों का—विशेष करके विद्वान् अतिथियों का—सत्कार करना वह अपना परम कर्तव्य समझता था। इस कारण जब उसने उस वेद-शास्त्र-सम्पन्न कौत्स के आने की ख़बर सुनी तब उन्हीं मिट्टी के पात्रों में अर्घ्य और पूजा की सामग्री लेकर वह उठ खड़ा हुआ। उठा ही नहीं, वह उठ कर कुछ दूर तक गया भी, और उस तपोधिनी अतिथि को अपने साथ लिवा लाया। यद्यपि रघु उस समय सुवर्ण-सम्पत्ति से धनवान् न था, तथापि मानरूपी धन को भी जो लोग धन समझते हैं उनमें वह सबसे बढ़ चढ़ कर था। महा-मानधनी होने पर भी रघु ने उस तपोधनी ब्राह्मण की विधिपूर्व्वक पूजा की। विद्या और तप के धन को उसने और सब धनों से बढ़ कर समझा। चक्रवर्ती राजा होने