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रघुवंश।


यथासमय अज विदर्भ नगरी के पास पहुँच गया और नगर के बाहर अपनी सेना सहित उतर पड़ा। उसके आने का समाचार पाकर विदर्भनरेश को परमानन्द हुआ। चन्द्रोदय होने पर, जिस तरह समुद्र अपनी बड़ी बड़ी लहरें ऊँची उठा कर चन्द्रमा से मिलने के लिए तट की तरफ़ बढ़ता है, उसी तरह विदर्भाधिप भी अज-कुमार को अपने यहाँ ले आने के लिए आगे बढ़ा और जहाँ वह ठहरा हुआ था वहाँ जाकर उससे भेंट की। वहाँ से उसने अज को साथ लिया और सेवक के समान उसके आगे आगे चलने लगा। बड़ी ही नम्रता से वह अजकुमार को अपनी राजधानी में ले आया। वहाँ राजश्री के सूचक छत्र और चमर आदि सारे ऐश्वर्यों से उसने उसकी बड़ी ही सेवा-शुश्रूषा की। उस आदर-सत्कार को देख कर, स्वयंवर में आये हुए लोगों ने अज-कुमार को तो विदर्भदेश का राजा और विदर्भ-नरेश को एक साधारण अतिथि अनुमान किया—अर्थात् अज तो घर का स्वामी सा जान पड़ने लगा और राजा भोज पाहुना सा। सत्कार की हद हो गई।

नगर-प्रवेश होने पर, राजा भोज के कर्मचारियों ने महापराक्रमी राजा रघु के प्रतिनिधि अज-कुमार से नम्रतापूर्वक यह निवेदन कियाः—"महाराज, जिसके द्वार पर बनी हुई वेदियों पर जल से भरे हुए मङ्गलसूचक कलश स्थापित हैं वह रमणीय और नई विश्रामशाला आप ही के लिए है"। यह सुन कर अज-कुमार ने—बाल्यावस्था के आगे वाली, अर्थात् यौवनावस्था, में मन्मथ के समान—उस मनोहर डेरे में निवास किया।

सायङ्काल होने पर स्वयंवर-सम्बन्धी चिन्ता में अज का चित्त मग्न हो गया। जिसके स्वयंवर में शरीक होने के लिए दूर दूर से सैकड़ों नरेश आये हुए हैं वह महासुन्दरी कन्या मुझे प्राप्त हो सकेगी या नहीं? यही विचार करते वह घंटों पलँग पर पड़ा रहा। उसे नींद ही न आई। बड़ी देर में, पति के आचरण से खिन्न हुई स्त्री के सदृश, निद्रा को अज की आँखों के सामने कहीं आने का साहस हुआ। नींद ने सोचा कि इस समय अज को इन्दुमती की विशेष चाह है, मेरी तो है ही नहीं। फिर मैं क्यों उसके पास जाने की जल्दी करूँ?

प्रातःकाल होने पर, पलँग पर लेटे हुए अज की छवि बहुतही दर्शनीय थी। उसके कानों के कुण्डल उसके पुष्ट कन्धों पर पड़े हुए थे। पलँग-पोश की रगड़ से उसके शरीर पर लगा हुआ केसर-कस्तूरी आदि का सुगन्धित उबटन कुछ कुछ छूट गया था। ऐसे रम्य-रूप और विख्यात-बुद्धि वाले कुमार को अब तक सोता देख, उसी की उम्र के और बड़ी ही रसाल वाणी