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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१५७

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आठवाँ सर्ग।


पिता के शरीर-त्याग का समाचार सुन कर, नियम-पूर्वक अग्नि की सेवा—अग्निहोत्र-करने वाले अज को बड़ा दुःख हुआ। उसने बहुत विलाप किया और शोक से सन्तप्त होकर घंटों आँसू बहाये। तदनन्तर, कितने ही योगियों और तपस्वियों को साथ लेकर उसने पिता की यथाविधि अन्त्येष्टि-क्रिया की, पर पिता के शरीर का अग्नि-संस्कार न किया। बात यह थी कि राजा रघु गृहस्थाश्रम छोड़ कर संन्यासी हो गया था। इस कारण संन्यासियों के मृत शरीर का जिस तरह संस्कार किया जाता है उसी तरह अज ने भी पिता के शरीर का संस्कार किया। पितरों से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी क्रियाये हैं उन सब को अज अच्छी तरह जानता था। अतएव, पिता के परलोक-सम्बन्धी सारे कार्य उसने यथाशास्त्र किये। पिता पर उसकी बड़ी भक्ति थी। इसी से उसने विधि-पूर्वक उसके और्घ्य-दैहिक कार्य निपटाये, यह समझ कर नहीं कि उनकी आवश्यकता थी। बात यह है कि इन कार्यों की कोई आवश्यकता ही न थी, क्योंकि संन्यास-ग्रहण के अनन्तर रघु ने समाधिस्थ हो कर शरीर छोड़ा था। और, इस तरह शरीर छोड़ने वाले पुरुष, पुत्रों के दिये हुए पिण्डदान की आङ्काक्षा ही नहीं रखते। वे तो ब्रह्म-पद को पहुँच जाते हैं। पिण्डदान से उन्हें क्या लाभ?

पिता पर अज की इतनी प्रीति थी कि बहुत दिनों तक उसे पिता के मरने का शोक बना रहा। यह देख, बड़े बड़े विद्वानों और तत्त्व-वेत्ताओं ने उसे समझाना बुझाना शुरू किया। उन्होंने कहा—"आपके पिता तो परम-पद को प्राप्त हो गये—वे तो परमात्मा में लीन हो गये। अतएव उनके विषय में शोक करना वृथा है। शोक कहीं ऐसों के लिए किया जाता है? इस प्रकार के तत्त्व-ज्ञान-पूर्ण उपदेश सुनने से, कुछ दिनों में, अज के हृदय से पिता के वियोग की व्यथा दूर हो गई। तब वह फिर अपना राज-काज, पहले ही की तरह, करने लगा। बरसों उसने अपने धनुष की डोरी खोली ही नहीं। सदा ही उसका धनुष चढ़ा रहा। फल यह हुआ कि वह सारे संसार का एकच्छत्र राजा हो गया।

महाप्रतापी राजा अज की एक रानी तो इन्दुमती थी ही। पृथ्वी भी उसकी दूसरी रानी ही के समान थी, क्योंकि उसका भी पति वही था। पहली ने तो अज के लिए एक वीर पुत्र उत्पन्न किया, और दूसरी, अर्थात पृथ्वी, ने अनन्त रत्नों की ढेरी उसे भेंट में दी—इन्दुमती से तो उसने पुत्र पाया और पृथ्वी से नाना प्रकार के रत्नों की राशि। अज के पुत्र का नाम दशरथ पड़ा। दशानन के वैरी रामचन्द्र के पिता होने का सौभाग्य अज के इसी पुत्र को प्राप्त हुआ। वह दस सौ, अर्थात् एक हज़ार, किरण

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